Salient Features Of Indian Society in Hindi |भारतीय समाज की प्रमुख विशेषताएँ | Indian Society UPSC In Hindi

भारतीय समाज की प्रमुख विशेषताएँ ( Salient Features Of Indian Society in Hindi )

Salient  Features Of Indian Society in Hindi
Salient Features Of Indian Society in Hindi

भारतीय समाज एक बहुभाषी, बहुजातीय, बहुवर्ग/जाति, पितृसत्तात्मक समाज है। इन सभी विविधताओं के बावजूद, भारतीय समाज ‘अनेकता में एकता‘ की जीवंत अभिव्यक्ति है।

भारतभूमि मानव जाति का पालना है, मानव-भाषा की जन्मस्थली है, इतिहास की जननी है, पौराणिक कथाओं की दादी है, और प्रथाओं की परदादी है। मानव इतिहास की हमारी सबसे कीमती और सबसे ज्ञान-गर्भित सामग्री केवल भारत में ही संचित है।—- मार्क ट्वेन

 

1. सांस्कृतिक विविधता:

भारत विविध संस्कृतियों, धर्मों, भाषाओं और परंपराओं की भूमि है। यह समाज विभिन्न जातीय समूहों का एक अनूठा मिश्रण हैं। भारत के अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग संस्कृतियों के दर्शन हो जाते हैं।

2. सामाजिक स्तरीकरण

भारतीय समाज में विभिन्न सामाजिक वर्गों या जातियों के साथ एक पदानुक्रमित संरचना है। जाति व्यवस्था, हालांकि आधिकारिक तौर पर समाप्त कर दी गई है, फिर भी कुछ हद तक सामाजिक संबंधों और रिश्तों को प्रभावित करती है।

3. संयुक्त परिवार प्रणाली:

संयुक्त परिवार प्रणाली भारत के कई हिस्सों में प्रचलित है। एक परिवार की कई पीढ़ियाँ अक्सर एक ही छत के नीचे एक साथ रहती है।

4. बड़ों का सम्मान:

भारतीय समाज में बड़ों के आदर और सम्मान पर बहुत जोर दिया जाता है। परिवार के बड़े सदस्यों को ज्ञान का स्तंभ माना जाता है और अक्सर उन्हें परिवार के भीतर अधिकार का पद दिया जाता है।

5. पितृसत्तात्मक समाज:

भारतीय समाज परंपरागत रूप से पितृसत्तात्मक रहा है, जिसमें निर्णय लेने और सामाजिक संरचनाओं में पुरुषों की प्रमुख भूमिका होती है। हालाँकि, महिलाएँ लिंग मानदंडों को चुनौती देते हुए बाधाओं को तोड़ रही हैं और विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण प्रगति हासिल कर रही हैं।

6. शिक्षा का मूल्य:

भारतीय समाज में शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। शैक्षणिक उपलब्धि और व्यावसायिक योग्यता प्राप्त करने पर ज़ोर दिया जाता है। माता-पिता अक्सर यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण त्याग करते हैं कि उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले।

7. धार्मिकता:

भारत अनेक आस्थाओं और विश्वासों वाला एक अत्यंत धार्मिक देश है। हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म, सिख धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म भारत में प्रचलित कुछ प्रमुख धर्म हैं। सांस्कृतिक प्रथाओं, त्योहारों और दैनिक जीवन को आकार देने में धर्म महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

भारत में धार्मिक विविधता

“भारत एक ऐसा देश है जिसमें हर महान धर्म को घर मिलता है।” एनी बेसेंट

भारत महत्वपूर्ण धार्मिक विविधता वाले देशों में से एक है। विश्व के लगभग सभी प्रमुख धर्म भारत में प्रचलित हैं। इसके अलावा, भारत हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म जैसे धर्मों का जन्मस्थान है।

हिंदू धर्म सबसे बड़ा धर्म है और इसमें कई उप-समूह शामिल हैं, यानी वैष्णव, शैव, शाक्त आदि ।

इस्लाम दूसरा सबसे बड़ा धर्म है और इसमें शिया, सुन्नी जैसे उप-समूह शामिल हैं। अहमदी, आदि

भारतीय जनसंख्या में हिंदू (82.41%), मुस्लिम (11.6%), ईसाई (2.32%), सिख (1.999%) शामिल हैं।

बौद्ध (0.77%) और जैन (0.41%)।

8. मजबूत पारिवारिक और सामुदायिक संबंध:

भारतीय समाज मजबूत पारिवारिक संबंधों और घनिष्ठ समुदायों को महत्व देता है। लोग अक्सर भावनात्मक समर्थन, सामाजिक संबंधों के लिए अपने परिवारों और समुदायों पर भरोसा करते हैं और आवश्यकता पड़ने पर एक दूसरे की सहायता भी करते हैं।

9. त्यौहार और उत्सव:

भारत पूरे वर्ष मनाए जाने वाले जीवंत और विविध त्योहारों के लिए जाना जाता है। दिवाली, होली, ईद, क्रिसमस, नवरात्रि और पोंगल रंगीन और आनंदमय त्योहारों के कुछ उदाहरण हैं जो लोगों को एक साथ लाते हैं। भारत में त्यौहार भी एकता के मूल्य को विकसित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।

10. पारंपरिक मूल्य और रीति-रिवाज:

पारंपरिक मूल्य और रीति-रिवाज भारतीय समाज का अभिन्न अंग हैं। बड़ों के प्रति सम्मान, आतिथ्य ( अतिथि देवो भव : ), विनम्रता , बंधुत्व ,आदि का महत्व कुछ ऐसे मूल्य हैं जो पीढ़ियों से चले आ रहे हैं।

11 .भाषाई विविधता

12  . जाति व्यवस्था  –

भारत में जाति का तात्पर्य एक ऐसे समूह से है जिनका पारंपरिक व्यवसाय, समान संस्कृति और समान सामाजिक पहचान होती है।

13 . अनेकता में एकता

Salient Features Of Indian Society in Hindi

जाति व्यवस्था की विशेषताएं

जाति के विषय मे समाजशास्त्री जोड़ के विचार :

जाति-प्रथा अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में इस विशाल देश में निवास करने वाले विभिन्न विचार , विभिन्न धार्मिक विश्वास, रीति रिवाज और परंपराएं रखने वाले विविध वर्गों को एक सूत्र में पिरोने का एक सफलतम प्रयास था।

वही कुले ने कहा है कि

जब एक वर्ग पूर्णतः अनुवांशिकता पर आधारित होता है तो उसे हम उसे जाति कहते हैं।

केतकर के अनुसार : 

जाति एक सामाजिक समूह है जिसकी दो विशेषताएं हैं -:

  1. सदस्यता केवल उन व्यक्तियों तक सीमित होती है जिन्होंने उसी जाति में जन्म लिया हो और इस प्रकार से पैदा हुए व्यक्ति ही इसमें सम्मिलित होते हैं।
  2. सदस्य एक कठोर सामाजिक नियम द्वारा अपने समूह से बाहर विवाह करने से रोक दिए जाते हैं।

अन्य विशेषताएं –

  1. ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज वर्गीकरण: इन समूहों का ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज दोनों वर्गीकरण है, वास्तव में यह जन्म पर आधारित है, इसलिए सामाजिक गतिशीलता अभेद्य है।
  2. वर्ण व्यवस्था: ‘वर्ण व्यवस्था’ इस पदानुक्रमित वर्गीकरण का आधार है और ब्राह्मणों को पदानुक्रम के शीर्ष पर रखा गया है, उसके बाद क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को रखा गया है।
  3. विभिन्न जातियों के सदस्यों और अंतरजातीय विवाह निषिद्ध हैं।
  4. परंपरागत रूप से जाति व्यवस्था विभिन्न जातियों के सदस्यों को व्यवसाय भी सौंपती थी (उदाहरण के लिए, मैला ढोना), लेकिन समय के साथ इसमें बदलाव आया है।
  5. अंतर्विवाह: अंतर्विवाह का तात्पर्य जाति के भीतर विवाह से है

जाति व्यवस्था की भूमिका

  1. स्थानीय स्वशासन का विकास – आक्रमणों के समय स्थिरता स्थापित की। उदाहरण के लिए,  लड़ने का कार्य करने वालो को आमतौर पर क्षत्रिय के रूप में समाज में शामिल किया जाता था।
  2. राजनीतिक एवम सांस्कृतिक रक्षा – भारत में जाति का एक अहम योगदान यह माना जाता है कि जाति प्रथा ने भारत की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रक्षा की है।

समाजशास्त्री ‘अब्बे डुब्बाए’ का इस संबंध में यह मत है कि –   मैं हिंदुओं की जाति प्रथा को उनके अधिनियम का सबसे अधिक सुख प्रयास समझता हूं। मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि यदि भारत की जनता उस समय भी बर्बरता के पंक में नहीं डूबी , जबकि सारा यूरोप डूबा हुआ था और यदि भारत ने सदैव सिर ऊंचा रखा , विविध विज्ञानों , कलाओं तथा सभ्यता का संरक्षण और विकास किया तो इसका पूर्ण श्रेय उसकी उस जाति प्रथा को है जिसके लिए वह बहुत प्रसिद्ध है।

फरनीवाल द्वारा – जाति के कारण भारत में एक बहू समाज स्थिर रह पाया।

3 . एक ही जाति के सदस्यों के बीच सहयोग और समन्वय पैदा हुआ।

4 . सामाजिक स्तिथि को आकार देता है

5 . संस्कृतियों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाने का माध्यम

6 . श्रम विभाजन – जाति व्यवस्था में विभिन्न जातियों के बीच कार्य विभाजन किया गया था। जिसके कारण अनेक जातियां अपने कार्य में विशेष कौशल और दक्षता प्राप्त कर गई । जिससे कहीं ना कहीं उन जाति की कमाई के साधन उपलब्ध हुए।

जाति व्यवस्था में हालिया परिवर्तन

  1. ब्राह्मणों के वर्चस्व में गिरावट: वैज्ञानिक सोच, धर्मनिरपेक्षीकरण और आधुनिकीकरण के आगमन के साथ ब्राह्मणों के वर्चस्व में गिरावट आई है। अतीत में, ब्राह्मण जाति पदानुक्रम में सर्वोच्च स्थान पर था।
  2. अंतरजातीय विवाह: बढ़ती साक्षरता दर और शहरीकरण के साथ, अंतरजातीय विवाह में वृद्धि हुई है। केंद्र सरकार ने अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करके सामाजिक एकीकरण के लिए डॉ. अंबेडकर योजना शुरू की।
  3. अस्पृश्यता का उन्मूलन: भारतीय कानून अस्पृश्यता की प्रथा की अनुमति नहीं देता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 17 इस प्रथा पर प्रतिबंध लगाता है।
  4. सामाजिक गतिशीलता: संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कुछ जातियों की सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है। संस्कृतिकरण उच्च जातियों की जीवनशैली अपनाने की घटना है (जैसे, शाकाहार)
  5. शहरीकरण और औद्योगीकरण ने पारंपरिक व्यावसायिक संरचनाओं को बदल दिया है और विभिन्न जातियों के बीच परस्पर निर्भरता पैदा की है। डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने जाति-आधारित भेदभाव को कायम रखने के लिए पारंपरिक ग्रामीण संरचनाओं को जिम्मेदार ठहराया।
  6. जाति व्यवस्था को कमजोर करना: आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने समानता, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों को प्रदान किया है, जिसने जाति व्यवस्था को और कमजोर कर दिया है।
  7. अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तन
  • पवित्रता का विचार अव्यावहारिक हो गया हैं।
  • भौगोलिक अलगाव में गिरावट आयी हैं।
  • पूंजीवाद के उभर के बाद जातिगत स्थिति का स्थान आर्थिक स्थिति ने ले लिया हैं।

जाति व्यवस्था के स्वरूप में परिवर्तन लाने वाले कारक

1. औधोगिकरण एवम नगरीकरण :

औद्योगीकरण के कारण गांव से शहरों की ओर प्रवास हुआ । जिससे एक ही कंपनी में या फैक्ट्री में अलग-अलग जाति के लोग एक साथ मिलकर काम करते हैं तथा एक साथ मिलकर आस-पास में ही। रहते हैं। इससे उनके बीच व्याप्त जाति भेद भाव को कमजोर करने में भी सहायता मिली है । वहीं गांव से प्रवास कर के लोग जब शहरों में जाते हैं । तो वहाँ गांव की तरह किसी जमीदार यह साहूकार द्वारा उत्पन्न रोजगार के साधनों पर निर्भर नहीं रहते हैं। इससे भी जातीय व्यवस्था के द्वारा होने वाले उत्पीड़न को कम करने में सहायक माना जाता है ।

2. धन का बढ़ता महत्व :

वर्तमान समय में धन का महत्व बढ़ता जा रहा है। जिसने जाति व्यवस्था को भी कमजोर करने में सहायक किया है।

3. अनेक सामाजिक सुधार आंदोलन :

आधुनिक भारत से ही हमारे अनेक महापुरुषों ने जातीय भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने का कार्य किया है तथा अनेक ऐसे नियमों व कानूनों को बनाने में भी सहायता प्राप्त की है । जिससे जाति आधारित भेदभाव को कम किया जा सके।

4. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्थिति :

स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भारत में प्रजातंत्र हैं। संविधान में स्पष्ट लिखा है कि रंग , लिंग, जन्म, धर्म आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।
जिससे सीधे तौर पर जाती आधारित भेदभाव पर चोट की हैं।

5. धार्मिक आंदोलन :

अनेक महापुरुषों द्वारा धार्मिक आंदोलन
चलाए गए जैसे ब्रह्म समाज, आर्य समाज , प्रार्थना समाज , रामकृष्ण मिशन, नानक , नामदेव, कबीर तुकाराम , बाबासाहेब आंबेडकर आदि महापुरुषों ने जाति के दोषों की कटु आलोचना की और जातीय उत्पीड़न का विरोध करते हुए इसे समाप्त करने के लिए अनेक धार्मिक आंदोलनों का आयोजन किया।

6. यातायात के साधनों का विकास :

आधुनिक भारत में यातायात के साधनों को भी जाति व्यवस्था की कठोरता को कम करने में सहायक माना जाता है । यातायात के साधनों के कारण व्यक्तियों में गतिशीलता बढी, जिससे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने लगे तथा सभी जाति के लोग एक साथ ही संचार या यातायात साधन में यात्रा करते थे । जिनके कारण ही उनमें आपसी भाई सारा बड़ा तथा समानता के भाव उत्पन्न हुई।

७. शिक्षा और जागरूकता का प्रसार :

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आधुनिक शिक्षा और आधुनिक मतों का आदान-प्रदान तथा प्रसार एक स्थान से दूसरे स्थान हुआ। जिससे समाज में जागरूकता का विकास हुआ । शिक्षा तथा जागरूकता के विकास में भी जाति व्यवस्था की कठोरता को कम करने का काम किया है।

८. जाति पंचायतो का अंत :

जाति व्यवस्था को कठोरता प्रदान करने में जाति पंचायतों का भी विशेष योगदान रहा हैं। परंतु स्वतंत्रता के बाद प्रजातंत्र, संविधान का शासन , कानून का शासन होने के बाद जाति पंचायतों का बहुत हद तक अंत हो गया है। इससे भी जाति व्यवस्था की कठोरता को कम करने में सहायता प्राप्त हुई है।

जाति व्यवस्था को मजबूत करने वाले कारक –

  • संसाधनों की कमी और कौशल का अभाव – कुछ विशेष वर्ग ही गरीबी जैसे कारणों से सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं जिस कारण उनकी संस्थागत गरीबी बानी रहती है और वो अब भी निम् स्तर के कार्य करने को मजबूर होते हैं जैसे – मैनुअल स्कैवेंजिंग का मुद्दा।
  • जाति आधारित आरक्षण – जाति आधारित आरक्षण की मांग बढ़ रही हैं। जाति आधारित आरक्षण की माँग अब बढ़ती ही जा रही है जैसे गुज्जर आंदोलन।
  • जाति आधारित राजनीति- आज राजनीती सबसे ज्यादा जाति आधारित केंद्रित हो गयी हैं। क्षेत्रीय दल जाति आधारित राजनीती का अधिक बढ़ावा  देते है। Salient Features Of Indian Society in Hindi

भाषाई विविधता

जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 19500 से अधिक भाषाएँ और बोलियाँ मातृभाषा के रूप में बोली जाती हैं।भारत के संविधान में 22 अनुसूचित भाषाएँ उल्लिखित हैं और जनगणना 2011 के अनुसार,देश की 96.71% आबादी इन 22 अनुसूचित भाषाओं में से किसी एक को मातृभाषा के रूप में उपयोग करती है।

हालांकि आधिकारिक तौर पर 122 भाषाएं हैं, पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया ने 780 भाषाओं की पहचान की है, जिनमें से 50 पिछले पांच दशकों में विलुप्त हो चुकी हैं। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, 121 भाषाएँ हैं जिनमें से प्रत्येक को बोलने वालों की संख्या 10,000 से अधिक है। Salient Features Of Indian Society in Hindi

भाषाई विविधता से संबंधित मुद्दे –

  1. कर्नाटक और महाराष्ट्र सीमा पर भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव का मुद्दा अक्सर खबरों में देखा जाता है।
  2. भाषाई अंधराष्ट्रवाद उदाहरण दूसरे राज्यों से आए मजदूरों के साथ हिंसा।
  3. प्रतिस्पर्धी बाजार अर्थव्यवस्था में भाषा का प्रयोग एक उपकरण के रूप में किया जाता हैं । हालिया कर्नाटक चुनाव में  नंदिनी बनाम अमूल मुद्दा इसी ओर संकेत करता हैं।
  4. क्षेत्रवाद का ख़तरा उदाहरण . मृदा पुत्र आंदोलन का प्रभाव। Salient Features Of Indian Society in Hindi

आगे बढ़ने का रास्त

  1. त्रिभाषा सूत्र:

कोठारी आयोग द्वारा दो व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली भाषाओं (हिंदी और अंग्रेजी) के साथ एक क्षेत्रीय भाषा को बढ़ावा देने का प्रस्ताव न केवल भाषाई अंतर को पाटेगा बल्कि क्षेत्रीय भाषा और संस्कृति को भी संरक्षित करेगा।

  1. प्रौद्योगिकी का उपयोग: अनुवाद संबंधी सेवाओं के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में ऑनलाइन संसाधन उपलब्ध कराने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, अनुवाद के लिए AI का उपयोग, E- BHASIN APP, ओटीटी प्लेटफार्मों ने क्षेत्रीय सामग्री को एक मजबूत आवाज दी है।
  2. लुप्तप्राय भाषाओं का संरक्षण: महान अंडमानी, असुर और बाल्टी जैसी लुप्तप्राय भाषाओं को संरक्षित और संवर्धित करने की आवश्यकता है।
  3. जागरूकता अभियान: एकता और अखंडता की भावना को बढ़ावा देना, भाषाई भेदभाव पर अंकुश लगाना आदि।
  4. भाषा नीति को लागू करने और निगरानी करने के लिए शिक्षा मंत्रालय के भाषा ब्यूरो का प्रभावी उपयोग।
  5. यूनेस्को ने स्कूली शिक्षा के प्रारंभिक वर्षों में मातृभाषा के प्रयोग की सिफ़ारिश की है। यह एनईपी 2020 में भी परिलक्षित होता है। Salient Features Of Indian Society in Hindi

अनेकता में एकता

देश तभी बनेगा महान जब एकता बनेगी हमारी पहचान। विविधता में एकता सबसे महान है, इसके आगे हर मुश्किल राह आसान है।

केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान- 

भारत में “अनेकता में एकता” का जन्म आवश्यकता से नहीं बल्कि “हमारी सभ्यता और सांस्कृतिक विरासत” के रूप में हुआ था। – केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान

अनंत विविधताओं के बावजूद भारतीय समाज में एकजुटता और अखंडता की भावना प्रकट होती है।

 

विविधता में एकता के लिए जिम्मेदार कारक इस प्रकार हैं:

1.       राजनीतिक संरचना – भारतीय संविधान एकल नागरिकता और एक मजबूत केंद्र के साथ-साथ संघवाद के मॉडल का प्रावधान करता है

2.       आर्थिक एकीकरण:- संविधान का अनुच्छेद 301 पूरे देश में व्यापार की स्वतंत्रता प्रदान करता है, इसके अलावा, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) ने एकल बाजार के विचार को और मजबूत किया है।

3.       धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता:- संविधान और सांस्कृतिक इतिहास के माध्यम से सर्व धर्म समभाव,  धर्मनिर्पेक्ष जैसे मूल्य।

4.        धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष त्यौहार: एकता की भावना पैदा करने के लिए पूरे देश में मनाए जाने वाले मेले और त्यौहार। जैसे दिवाली, ईद, गणतंत्र दिवस.

5.       योजनाओं के माध्यम से: एक भारत श्रेष्ठ भारत का उद्देश्य सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से राज्यों के बीच समझ और बंधन को बढ़ाना, भारत की एकता और अखंडता को बढ़ावा देना है।

भारत की विविधता को ख़तरा उत्पन्न करने वाले करक –

1.       साम्प्रदायिकता और सोशल मीडिया का हालिया खतरा

2.       सामाजिक असमानता: जैसे. जातीय हिंसा, वामपंथी उग्रवाद

3.       क्षेत्रवाद: भूमि पुत्र की अवधारणा , उत्तर और दक्षिण बहस,  उत्तर पूर्व के लोगों के साथ भेदभाव

4.       अंतरराज्यीय विवाद – जल विवाद जैसे कावेरी विवाद

5.       असंतुलित क्षेत्रीय विकास: मराठवाड़ा, सौराष्ट्र, बुन्देलखण्ड क्षेत्र

आगे बढ़ने का रास्ता

1.       संतुलित क्षेत्रीय विकास: देश में अविकसित क्षेत्रों की पहचान करें और उन्हें लक्षित करें। जैसे आकांक्षी जिला कार्यक्रम.

2.     राष्ट्रवाद और देशभक्ति को बढ़ावा दें: क्षेत्रवाद से निपटने के लिए राष्ट्रवाद और देशभक्ति की भावना पैदा करनी चाहिए। उदाहरण के लिए, दिल्ली सरकार ने बच्चों में देशभक्ति की भावना जगाने के लिए स्कूलों में ‘देशभक्ति’ पाठ्यक्रम शुरू करने की घोषणा की।

3.       सांप्रदायिकता पर अंकुश लगाने के लिए धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देना।

4.       बेहतर कनेक्टिविटी ताकि असामाजिक तत्व राष्ट्रीय हित के खिलाफ भौगोलिक अलगाव का फायदा न उठा सकें।

5.       विभिन्न सामाजिक कल्याण और शैक्षिक उपायों का उपयोग करके बढ़ती असमानताओं से निपटने की आवश्यकता है।

 

 

सामाजिक संस्थाएँ

 परिवार

परिवार समाज की मूलभूत इकाई है। यह एक बच्चे के लिए तात्कालिक वातावरण है जहां वह बुनियादी व्यवहार के तरीके , भाषा और रीति-रिवाज सीखता है।

परिवार को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

परिवार के प्रकार

1.       निवास के आधार पर

a)      पितृस्थानीय: नवविवाहित जोड़ा पुरुष के परिवार के साथ रहता है

b)      मातृस्थानीय: नवविवाहित जोड़ा महिला के परिवार के साथ रहता है।

c)       बिलोकल: नवविवाहित जोड़ा दोनों के साथ रहता है। परिवार वैकल्पिक रूप से।

2॰ वंशानुक्रम के आधार पर

a)      पितृवंशीय: संपत्ति पिता से पुत्र को हस्तांतरित होती है।

b)      मातृवंशीय: संपत्ति मां से बेटी को हस्तांतरित होती है

3॰ आकार के आधार पर

a)      एकल परिवार: इसमें पति, पत्नी और उनके अविवाहित बच्चे शामिल होते हैं।

b)      संयुक्त परिवार: इसमें 2 या अधिक पीढ़ियाँ एक साथ रहती हैं

4॰ अधिकार के आधार पर 

a)      पितृसत्तात्मक: सबसे उम्रदराज़ पुरुष सदस्य सत्ता का प्रयोग करता है।

b)      मातृसत्तात्मक: सबसे उम्रदराज़ महिला सदस्य अधिकार का प्रयोग करती है और प्रमुख निर्णय लेती है।

परिवार के कार्य

a)      घरेलू स्थिरता

b)      सांस्कृतिक समृद्धि बनाए रखना

c)       समाजीकरण गरिमा पूर्ण जीवन

d)      आर्थिक स्थिरता बनाए रखना

e)      धार्मिक समृद्धि रखरखाव

भारतीय परिवार व्यवस्था में परिवर्तन

  • संयुक्त परिवारों की घटती प्रवृत्ति: सदियों पुराने संयुक्त परिवारों की जगह एकल परिवार ले रहे हैं। यद्यपि एकल परिवार का अस्तित्व परिस्थितिजन्य है।
  • विकसित होती विवाह प्रणाली: विवाह की उम्र बढ़ गई है और बाल विवाह की घटनाओं में कमी आ रही है, लिव-इन का चलन बढ़ रहा है आदि।
  • नव-स्थानीय निवास: औद्योगीकरण और शहरीकरण के परिणामस्वरूप अधिक से अधिक युवा विवाहित जोड़े अपने काम के स्थान पर अपना निवास स्थापित करते हैं। इसलिए, नव-स्थानीय निवास अधिकाधिक अस्तित्व में आ रहा है।
  • पितृसत्ता का पतन: भारत में परिवर अब वास्तव में पितृसत्तात्मक नहीं हैं और विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में व्यक्तिगत स्वायत्तता की पर्याप्त गुंजाइश है।
  • महिलाओं की आत्मनिर्भरता: महिलाएं अब घरों तक ही सीमित नहीं हैं। वे उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और नौकरी बाजार में भाग ले रहे हैं। Salient Features Of Indian Society in Hindi

परिवार व्यवस्था में परिवर्तन के लिए उत्तरदायी कारक-

a)      आधुनिक विज्ञान, तर्कवाद,

b)      पश्चिमी मूल्यों का प्रभाव: आधुनिक विज्ञान, तर्कवाद, व्यक्तिवाद, समानता, स्वतंत्र जीवन, लोकतंत्र, महिलाओं की स्वतंत्रता आदि से संबंधित मूल्यों ने भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली पर जबरदस्त बदलाव किया है।

c)       औद्योगीकरण: पारंपरिक व्यवसायों के बजाय कौशल आधारित नौकरियां।

d)      सामाजिक विधान-  समान काम के लिए समान वेतन, बाल विवाह रोकथाम अधिनियम

e)      आधुनिक शिक्षा समानता, नये युग के कौशल पर आधारित

f)       शहरीकरण- शहरों में कम आवास स्थान  होते है जो  एकल परिवारों के पक्ष में है।  शहरों में गांव के समान संयुक्त परिवार  आसान नहीं होता हैं।

 

विवाह संस्था

“विवाह केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि मानव समाज की एक अंतर्निहित शर्त है।” डॉ. राधाकृष्णन

विवाह संघ की एक सामाजिक स्वीकृति है और इसे विभिन्न अनुष्ठानों और समारोहों द्वारा पूरा किया जाता है। यह प्रेम की अभिव्यक्ति और विकास के लिए बनाई गई संस्था है।

विवाह के प्रकार

एकल विवाह :  विवाह का एकमात्र रूप है जो अधिकांश समाजों में पाया जाता है; एक पुरुष एक महिला से विवाह करता है, विवाह के भीतर बच्चों का पालन-पोषण करता है और अपने साथी के साथ सभी संस्कार करता है।

बहुविवाह: बहुविवाह को एक व्यक्ति और दो या दो से अधिक पति-पत्नी के बीच एक साथ विवाह के रूप में परिभाषित किया गया है।

यह दो मुख्य रूपों में मौजूद है:

·         बहुविवाह, जहां एक पुरुष का कई महिलाओं से विवाह होता है।

·         बहुपतित्व, जहां एक महिला की शादी कई पुरुषों से होती है।

लेविरेट: लेविरेट विवाह का एक रूप है जिसके तहत एक महिला को दिवंगत पति के छोटे भाई की पत्नी के रूप में लिया जाता है।

विवाह संरचना में परिवर्तन

a)      शादी की उम्र में बदलाव: 18 से 21 लेकिन अब देरी से शादी होना आम बात हैं।

b)      तलाक और परित्याग दर में वृद्धि

c)       विवाह के उद्देश्य में परिवर्तन जैसे धर्म/कर्तव्य से साहचर्य तक

d)      बहुपत्नी प्रथा से एकपत्नी प्रथा के स्वरूप में परिवर्तन

विवाह से संबंधित मुद्दा

a)      जबरन विवाह: कुछ संस्कृतियों में, व्यक्तियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध विवाह करने के लिए मजबूर किया जा सकता है, जिससे अक्सर सहमति की कमी होती है और मानवाधिकारों का संभावित उल्लंघन होता है।

b)      बाल विवाह: बाल विवाह में आमतौर पर 21  वर्ष से कम उम्र के बच्चों का विवाह करना शामिल है। यह उन्हें उनके बचपन, शिक्षा और अवसरों से वंचित करता है, और विभिन्न स्वास्थ्य और सामाजिक जोखिम पैदा करता है।

c)       व्यवस्थित विवाह: व्यवस्थित विवाह एक सांस्कृतिक प्रथा है जिसमें परिवार या मध्यस्थ व्यक्तियों के लिए जीवनसाथी चुनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जबकि कुछ व्यवस्थित विवाह सफल होते हैं, अन्य के परिणामस्वरूप अनुकूलता संबंधी समस्याएं, व्यक्तिगत पसंद की कमी, या असमान शक्ति गतिशीलता हो सकती है।

d)      दहेज प्रथा: दहेज प्रथा में शादी के दौरान दुल्हन के परिवार से दूल्हे के परिवार को पर्याप्त उपहार या भुगतान देने की प्रथा शामिल है। इससे वित्तीय बोझ, शोषण और लिंग आधारित हिंसा हो सकती है।

e)      लैंगिक असमानता: कई समाजों में विवाह लैंगिक असमानता से प्रभावित होता है। महिलाओं को विवाह के भीतर भेदभाव, सीमित निर्णय लेने की शक्ति, घरेलू कामों का असमान वितरण और संसाधनों और अवसरों तक असमान पहुंच का सामना करना पड़ सकता है।

f)       अंतरधार्मिक या अंतरसांस्कृतिक विवाह: विभिन्न धार्मिक या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के बीच विवाह को स्वीकृति, समझ और अनुकूलता से संबंधित चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, खासकर जब परिवार या समुदाय कठोर विश्वास या परंपराएं रखते हैं।

g)      वैवाहिक दुर्व्यवहार: घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार विवाह के भीतर हो सकता है, जो पुरुषों और महिलाओं दोनों को प्रभावित करता है। शारीरिक, भावनात्मक और वित्तीय दुर्व्यवहार के गंभीर परिणाम और लंबे समय तक चलने वाला आघात हो सकता है।

h)      समान-लिंग विवाह: कुछ देशों या समाजों में, समान-लिंग विवाह को कानूनी और सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसमें भेदभाव, मान्यता की कमी और कानूनी अधिकारों और सुरक्षा से इनकार शामिल है।

i)        तलाक और अलगाव: वैवाहिक विघटन, तलाक और अलगाव से भावनात्मक संकट, कानूनी पारिवारिक विवाद, वित्तीय अस्थिरता और सह-पालन में चुनौतियाँ पैदा हो सकती हैं, जिससे व्यक्ति और उनके परिवार दोनों प्रभावित हो सकते हैं।

विवाह से संबंधित समसामयिक मुद्दे

·         न्यायालय एक विशेष कानून के तहत समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने के लिए कई याचिकाकर्ताओं के अनुरोधों पर सुनवाई कर रहा है।

 

·         भारत में एनआरआई विवाहों को परित्याग, धोखाधड़ी और वित्तीय शोषण की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। क्षेत्राधिकार संबंधी जटिलताएँ और सांस्कृतिक भिन्नताएँ निवारण को जटिल बनाती हैं। सरकारी पहल का उद्देश्य सहायता प्रदान करना और जागरूकता बढ़ाना है।

 

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