“AIPAN”-An Art | Aipan Art Of Uttarakhand| Aipan Kalla ऐपण-एक कला
AIPAN ( Aipan Art Of Uttarakhand)
देवभूमि उत्तराखंड जो कि अपनी विशिष्ट संस्कृति एवं कलाकृतियों हेतु विश्व भर में प्रसिद्ध है, इन्ही संस्कृतियों में ” AIPAN (ऐपण) ( Aipan Art Of Uttarakhand ) “ भी एक प्रमुख कला है। जिसका प्रत्येक कुमाऊँनी घर में एक महान सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है।
” AIPAN (ऐपण) “ शब्द संस्कृत शब्द के ‘अर्पण’ शब्द से लिया गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है लिखना।उत्तराखंड के प्रत्येक घर की दीवारों पर, आंगन में ,देहलियों पर,पूजा स्थलों में ऐपण देखने को मिल जाते हैं।
त्योहारों, शुभ अवसरों, धार्मिक अनुष्ठानों, नामकरण संस्कार, विवाह, जनेऊ आदि जैसे पवित्र समारोहों में भी AIPAN (ऐपण) बनाये जाते हैं। कुछ कलाकृतियां हम शुभ समारोहों में ब्राह्रमण (पंडित जी) द्वारा बनाई गई गेरू एवं चावल के आटे से स्वस्तिक एवं विभिन्न शुभ आकृतियों के माध्यम से देख सकते हैं।
Aipan Art Of Uttarakhand
AIPAN (ऐपण) की विभिन्न आकृतियां जिनका अपना एक धार्मिक महत्व भी है। उत्तराखण्ड के विभिन्न त्यौहारों तथा मांगलिक अवसरों पर बनाये जाने वाले ऐपण का विशिष्ट स्वरुप एवं विधान होता है।
AIPAN (ऐपण) क्या है ? ( Aipan Art Of Uttarakhand )
“AIPAN (ऐपण)”, ‘अर्पण’ अथवा ‘अल्पना’ भारत के उत्तरी हिमालयी राज्य देवभूमि उत्तराखंड की सर्वाधिक प्राचीन तथा पौराणिक लोककलाओं में से एक है।
अपनी समृद्धशाली सांस्कृतिक विरासत, अनमोल परंपराओं व आलौकिक कर्मों में, लोककला ऐपण का महत्वपूर्ण योगदान सदा से रहा है। किसी भी त्यौहार, मांगलिक अवसर पर भूमि व दीवार पर चावल, गेरू, हल्दी, जौ, मिट्टी, गाय के गोबर, रोली अष्टगन्ध से बना कर रेखांकित की गई आकृति जो देवों के आह्वान को दर्शाती है, को “AIPAN (ऐपण)” कहा जाता है।
उत्तराखंड के कुमाऊं में किसी भी मांगलिक कार्य के अवसर पर अपने अपने घरों को सजाने की परंपरा
है। इसमें वह प्राकृतिक रंगो जैसे गेरू एवं पिसे हुए चावल के घोल (बिस्वार) से विभिन्न आकृतियां बनायी जाती है। लोक कला की इस स्थानीय शैली को ऐपण कहा जाता है।
ऐपण का अर्थ लीपने से होता है और लीप शब्द का अर्थ अंगुलियों से रंग लगाना है। पारम्परिक उत्तराखंड की अमूल्य धरोहर लोककला ऐपण को मुख्यद्वार की देहली तथा विभिन्न अवसरों पर पूजा विधि के अनुसार अथवा अनुष्ठान के मुताबिक देवी – देवता के आसान, पीठ, भद्र आदि अंकित करते हैं।
जिनमें शिव पीठ, लक्ष्मी पीठ, आसन, लक्ष्मी नारायण, चिड़िया चौकी, नव दुर्गा चौकी, आसन चौकी, चामुंडा हस्त चौकी, सरस्वती चौकी, जनेऊ चौकी, शिव या शिवचरण पीठ, सूर्य दर्शन चौकी, स्यो ऐपण, आचार्य चौकी, विवाह चौकी, धूलिअर्घ्य चौकी, ज्योति पट्टा हैं।
लक्ष्मी के पैरो के बिना ऐपण अधूरे माने जाते है। अनामिका और मध्यमा उँगलिओं को बिस्वार (चावल के आटे) में डुबोकर जमीन पर लिपे लाल गेरू (मिट्टी) पर शुभ और मांगलिक कार्यों मे महिलाओं द्वारा उकेरा जाता है।
भारतवर्ष के प्रमुख त्यौहार दीपावली में “AIPAN (ऐपण)” का विशेष महत्व है। दीपावली महापर्व पर “AIPAN (ऐपण)” घरों की देहलियों पर, मंदिरों में, सीढ़ियों में लक्ष्मी जी के पैर विशेष रूप से बनाये जाते है।
समय के साथ-साथ इस पारंपरिक लोककला में काफी परिवर्तन आ चुका है। आजकल कैनवास के ऊपर गेरू और फेवीकोल का लेप लगाकर सतह तैयार कर, उसके बाद सतह पर पारम्परिक ऐपण को रंगों द्वारा उकेरा जाता है। गेरू और हस्त निर्मित ऐपणों की जगह स्टीकर एवं टाइल्स को जयादा महत्व दिया जाने लगा है।
वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में भी अल्पनाओं का महत्व बहुत कम नहीं हुआ है। लेकिन इसके रूप में परिवर्तन अवश्य हुआ है क्योंकि हस्त निर्मित अल्पनाओं का मुद्रित रूप प्राप्त होने लगा है। इस नवीन प्रवृत्ति के कारण अल्पना निर्माण में मनोयोग और अल्पनाओं में वैविध्य की शून्यता पनपने लगी है। चूँकि अल्पनायें केवल रेखा चित्र मात्र नहीं होती हैं, बल्कि उनमें लोक जन- मानस से जुड़ी धार्मिक एवं सामाजिक आस्थाओं की अभिव्यक्ति समाहित होती है। इस हेतु इसके संरक्षण के प्रयास करने अत्यंत आवश्यक है।
ऐपण : कला का एक अमूर्त रूप
कुमाऊनी ऐपण का जो रूप सदियों पहले था, वही रूप आज भी है। बल्कि यूं कह सकते हैं कि समय के साथ-साथ यह और भी समृद्ध हो चला है। यह कुमाऊं की एक लोक चित्रकला की शैली है, जो कि पहचान बन चुकी है ” कुमाऊं की गौरवशाली परंपरा की “।
ऐपण बनाने वक्त महिलाएं चांद ,सूरज, स्वस्तिक, गणेश जी, फूल,पत्ते, बेल बूटे, लक्ष्मी पैर ,चोखाने ,चौपड़,शंख,दिये,धंटी आदि चित्र खूबसूरती से जमीन पर उकेरती हैं। जिस जगह पर ऐपण बनाने होते हैं उस जगह की पहले गेरू/लाल पेंट से पुताई की जाती हैं उसके बाद उसमें बिस्वार/सफ़ेद पेंट से डिज़ायन बनाये जाते हैं। लक्ष्मी जी के पैर जब भी उकेरे जाते हैं तो बाहर से अंदर दिशा को आते हुए बनाए जाते हैं। एक जोड़ी लक्ष्मी पैर के बीच में एक छोटा सा गोला या स्वस्तिक बना दिया जाता है, जिसे धन दौलत का प्रतीक माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे देवी प्रसन्न होती हैं और घर में शुभता और मंगलता बने रहती है।
कुमाऊं की इस अनमोल धरोहर को सजाने, संवारने ,सहेजने का पूरा श्रेय यहां की महिलाओं को जाता है। सच में महिलाओं ने ही इस कला को जीवित रखा हैं। महिलाएं इस कला के माध्यम से अपने मन के भाव व अपनी शुभकामनाओं की अभिव्यक्ति अपने घर में प्रतिक के रूप में करती है। इससे न सिर्फ घर सुंदर दिखता है बल्कि पवित्र भी हो जाता है।
कुमांऊँ के इतिहास के प्रारंभ से ही कला विद्यमान थी। जिस कला से यहाँ के जनमानस की अभिव्यक्ति व परम्परागत गुण रहस्यों की गहराइयों की जानकारी प्राप्त होती है, वही कुमांऊँ की लोककला है। कुमांऊँ की लोककला का स्वरूप भारत की अन्य कलाओं व लोककलाओं के समरूप ही पाया जाता है। हिमालय की वक्षस्थली में फैला लगभग 1500 वर्ग किलोमीटर अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, पिथौरागढ़, नैनीताल व उधमसिंह नगर नामक जिलों को कुमांऊँ क्षेत्र कहा जाता है, जो भारतवर्ष के उत्तराखण्ड नामक राज्य में हैं, इन जिलों की पारम्परिक कलाओं को कुमांऊँनी लोककला अर्थात् कुमांऊँ की लोककला कहते हैं।
वर्तमान समय में ऐपण कला ( Aipan Art Of Uttarakhand)
प्राचीन काल में प्राकृतिक रंगों से, गेरू एवं पिसे हुए चावल के आटे के घोल (बिस्वार), आदि की सहायता से दाहिने हाथ की अंतिम तीन उंगलियों की सहायता से विभिन्न ऐपण आकृतियां बनायी जाती थी। वर्तमान समय में तकनीकी संसाधनों के विकास ने ऐपण हेतु कई वैकल्पिक संसाधन विकसित कर दिए हैं।
आज विभिन्न प्रकार के आधुनिक उपकरण पेंट, ब्रश, स्टीकर, कीप आदि ने ऐपण को और भी आधुनिक बना दिया गया है। जहां प्राचीन समय में यह दीवारों,मंदिरों एवम आंगनों तक ही सीमित था वही आज हम ऐपण की कलाकृतियों को पूजा थाल, नामपट्ट(नेम प्लेट), कुशन कवर, विभिन्न चौकियां, की होल्डर, कलश आदि पर भी इस कला को उकेरने में सफल हुए हैं।
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हमारा समाज रोजगार एवं उचित सुविधाओं की चाह में पलायन के साथ साथ हमारी संस्कृति को भी भूलता जा रहा है जिस कारण ऐपण का महत्व सीमित ही रह गया है, जिसे संरक्षित करने की जरूरत है ताकि पूर्वजों द्वारा धरोहर के रूप में हमें प्रदान की गई इन संस्कृतियों को आने वाली पीढ़ियों को दे सकें और अपनी संस्कृति के इस महत्वपूर्ण भाग को संरक्षित एवं विश्व स्तर पर
उकेर कर एक नायब पहचान दिला सके।
वर्तमान समय में जिन आधुनिक तरीको से हम इस लोककला को भूलने की कोशिश कर रहे है, उसपर लगाम लगाने की नितांत आवश्यकता है। जिससे हम हमारी लोककला AIPAN (ऐपण) को लुप्त होने से बचा सके। इसके लिए हमे खुद जागरूक होना होगा और आधुनिकता वाद की दुनिया में इस लोककला के संरक्षण के लिये प्रयास करना होगा। हमे खुद जागरूक होकर इन टाइल्स और स्टिकर के प्रयोगों से खुद को दूर रखकर इस लोककला के संरक्षण हेतु प्रयास करने होंगे।
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