भिटौली : एक परंपरा अपने परिवारजनों के इंतज़ार की | BHITOLI : A TRADITION OF UTTARAKHAND
BHITOLI : A TRADITION OF UTTARAKHAND
उत्तराखण्ड राज्य में बहुत सी ऐसी परंपरा विद्यमान है जिनसे बहुत से लोग अनभिज्ञ है, ऐसी ही एक विशिष्ट परंपरा है।
” भिटौली : एक परंपरा अपने परिवारजनों के इंतज़ार की। “
कुमाऊं–गढ़वाल मण्डल के पहाड़ी क्षेत्र अपनी रंगीली लोक परम्पराओं और त्यौहारों के लिये सदियों से लोकप्रिय हैं। यहाँ प्रचलित कई ऐसे त्यौहार हैं जो केवल उत्तराखण्ड में ही मनाये जाते है। वही इसे बचाए रखने का दायित्व उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र और यहाँ पर रहने वाले पहाड़ी लोगों ने उठाया है, इन्होने आज भी अपनी परंपरा और रीति- रिवाजों को सजो के रखा है। BHITOLI : A TRADITION OF UTTARAKHAND
उत्तराखण्ड में चैत्र का पूरा महीना भिटौली के महीने के रुप में मनाया जाता है। उत्तराखंड के लोकगायक स्व० गोपाल बाबू गोस्वामी जी के इस गाने मे भिटौली परंपरा के बारे मे वर्णन किया है जो इस प्रकार है:-
“ बाटी लागी बारात चेली ,बैठ डोली मे,
बाबु की लाडली चेली,बैठ डोली मे
तेरो बाजू भिटोयी लाला, बैठ डोली मे ”
भिटौली का अर्थ | BHITOLI IN HINDI
भिटौली का शाब्दिक अर्थ है – भेंट (मुलाकात) करना।
प्रत्येक विवाहित लड़की के मायके वाले (भाई, माता-पिता या अन्य परिजन) चैत्र के महीने में उसके ससुराल जाकर विवाहिता से मुलाकात करते हैं। इस अवसर पर वह अपनी लड़की के लिये घर में बने व्यंजन जैसे खजूर, खीर, मिठाई, फल तथा वस्त्र आदि लेकर जाते हैं। शादी के बाद की पहली भिटौली कन्या को बैसाख के महीने में दी जाती है और उसके बाद हर वर्ष चैत्र के महीने में दी जाती है। लड़की चाहे कितने ही सम्पन्न परिवार में क्यों ना ब्याही गई हो उसे अपने मायके से आने वाली “भिटौली” का हर वर्ष बेसब्री से इन्तजार रहता है। इस वार्षिक सौगात में उपहार स्वरूप दी जाने वाली वस्तुओं के साथ ही उसके साथ जुड़ी कई अदृश्य शुभकामनाएं, आशीर्वाद और ढेर सारा प्यार-दुलार विवाहिता तक पहुंच जाता है।
पहाड़ों पर चैत्र के महीने में एक चिड़िया घुई-घुई बोलती है, जिसे घुघुती कहते हैं। घुघुती का उल्लेख पहाड़ी दंतकथाएं और लोक गीत में भी पाया जाता हैं। विवाहित बहनों को चैत का महिना आते ही अपने मायके से आने वाली ‘भिटौली‘ की सौगात का इंतजार रहने लगता है। इस इन्तजार को लोक गायकों ने लोक गीतों के माध्यम से भी व्यक्त किया है। BHITOLI : A TRADITION OF UTTARAKHAND
“न बासा घुघुती चैत की, याद ऐ जांछी मिकें मैत की।”
भिटौली प्रदेश की लोक संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। इसके साथ कई दंतकथाएं और लोक गीत भी जुड़े हुए हैं। पहाड़ में चैत्र माह में यह लोकगीत काफी प्रचलित है। BHITOLI : A TRADITION OF UTTARAKHAND
-: एक प्रचलित कथा :-
” भै भुखो–मैं सिती “ नाम की दंतकथा भिटौली परंपरा की काफी प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बहन अपने भाई के भिटौली लेकर आने के इंतजार में पहले बिना सोए उसका इंतजार करती रही। लेकिन जब देर से भाई पहुंचा, तब तक उसे नींद आ गई और वह गहरी नींद में सो गई। भाई को लगा कि बहन काम के बोझ से थक कर सोई है, उसे जगाकर नींद में खलल न डाला जाए। उसने भिटौली की सामग्री बहन के पास रखी। अगले दिन शनिवार होने की वजह से वह परंपरा के अनुसार बहन के घर रुक नहीं सकता था, और उसे रात्रि से पहले अपने गांव भी पहुंचना था, इसलिए उसने बहन को प्रणाम किया और घर लौट आया। बाद में जागने पर बहन को जब पता चला कि भाई भिटौली लेकर आया था। इतनी दूर से आने की वजह से वह भूखा भी होगा। मैं सोई रही और मैंने भाई को भूखे ही लौटा दिया। यह सोच-सोच कर वह इतनी दुखी हुई कि ” भै भुखो–मैं सिती “ अर्थात भाई भूखा रहा, और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण ही त्याग दिए।
कहते हैं कि वह बहन अगले जन्म में ‘ घुघुती ‘ नाम की पक्षी बनी और हर वर्ष चैत्र माह में ” भै भुखो–मैं सिती “ की टोर लगाती सुनाई पड़ती है। पहाड़ में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी माना जाता है। BHITOLI : A TRADITION OF UTTARAKHAND
-: उत्तराखंड के पिथौरागढ जिले में भिटौली पर ‘चैतोल’ की परंपरा :-
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ जिले में चैत्र मास में भिटौली के साथ ही चैतोल पर्व मनाए जाने की एक अन्य परंपरा भी है। चैत्र मास के अन्तिम सप्ताह में मनाये जाने वाले इस त्योहार में पिथौरागढ के समीपवर्ती गांव चहर-चौसर से डोला यानी शोभायात्रा भी निकाली जाती है, जो कि निकट के 22 गांवों में घूमती है। चैतोल के डोले को भगवान शिव के देवलसमेत अवतार का प्रतीक बताया जाता है, डोला पैदल ही 22 गांवों में स्थित भगवती देवी के थानों यानी मंदिरों में भिटौली के अवसर पर पहुंचता है। मंदिरों में देवता किसी व्यक्ति के शरीर में अवतरित होकर उपस्थित लोगों व भक्तों को आशीर्वाद देते हैं।
आज से कुछ दशक पहले जब यातायात व संचार के माध्यम इतने नहीं थे उस समय की महिलाओं के लिये यह परंपरा बहुत महत्वपूर्ण थी। जब साल में एक बार मायके से उनके लिये पारंपरिक पकवानों की पोटली के साथ ही उपहार के तौर पर कपड़े आदि आते थे। समय बीतने के साथ-साथ इस परंपरा में बहुत कुछ बदलाव आ चुका है। इस रीति-रिवाज पर भी औपचारिकता, पलायन और शहरीकरण ने गहरा प्रभाव छोडा है। वर्तमान समय में अधिकतर लोग फ़ोन पर बात करके कोरियर से गिफ़्ट या मनीआर्डर/ड्राफ़्ट से अपनी बहनों को रुपये भेज कर औपचारिकता पूरी कर देते हैं। लेकिन ग्रामीण इलाकों में आज भी प्रेमभाव व पारिवारिक सौहार्द के साथ भिटौली का खास महत्व बना हुआ है। BHITOLI : A TRADITION OF UTTARAKHAND
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