वनाग्नि । जलते जंगल । Forest Fire in Uttarakhand । Vanagni
Forest Fire in Uttarakhand
मध्य हिमालयी क्षेत्र में बसा उत्तराखंड प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी आग की लपटों में घिरा हुआ है। जंगलों में लगी आग यहाँ कोई नई बात नहीं है लेकिन हर बार आग नए खतरों के साथ फैलती है। प्रत्येक वर्ष गर्मी शुरू होने के साथ ही जंगलों की आग पुरे उत्तराखंड में फैलने लगती है, सरकार के बड़े-बड़े दावे वनाग्नि की बढ़ती घटनाओं के सामने कोरे से लगते है।
इस बार भी गर्मी शुरू होते ही जंगलों की आग ने विकराल रूप लेकर चारों तरफ नुकसान करना शुरू कर दिया है। उत्तराखंड के जंगलों में लगी यह भीषण आग कई दिनों से न सिर्फ वन विभाग बल्कि उत्तराखंड सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई है। यह आजतक भी किसी को समझ नहीं आता की जंगलो में इतनी भीषण आग कैसे लगती है, इसका पता ना होना सरकार और विभाग की कमजोर नीतियों का ही परिणाम है।
देवभूमि कहा जाने वाला उत्तराखंड आग की लपटों ऐसा घिरा हुआ है जिसके बारे में न किसी को सम्प्रोक्ष प्रमाण मिल पाता है कि जंगलो में आग लगी तो लगी कैसे? कोई कयास लगाता है, कोई कहानियां बनाता है, तो कोई कई दावे करता है लेकिन ठोस कारण किसी को नहीं पता।
उत्तराखंड के लगभग सभी पहाड़ी जिलों में बड़े पैमाने पर वनाग्नि ने एक बार फिर से आपदा प्रबंधन, पर्यावरणीय सुरक्षा, बहुमूल्य वनस्पति एवं वन्यजीवों के संरक्षण जैसे बहुत से प्रश्नों पर विचार करने को विवश कर दिया है।
प्रत्येक वर्ष गर्मी का मौसम आते ही देश के पहाड़ी राज्यों, विशेषकर उत्तराखंड के वनों में आग लगने का सिलसिला शुरू हो जाता है। वार्षिक आयोजन जैसी बन चुकी उत्तराखंड के वनों की यह आग प्रत्येक वर्ष विकराल होती जा रही है, जो न केवल जंगल, वन्य जीवन और वनस्पति के लिये नए खतरे उत्पन्न कर रही है, बल्कि समूचे पारिस्थितिकी तंत्र पर अब इसका प्रभाव नज़र आने लगा है।
पृथ्वी का जो तत्व सृजन के लिए है, वह विनाशकारी भी हो सकता है। इस तथ्य को जल, थल और आकाश से उत्पन्न होने वाली आपदाओं के रूप में हम सभी भली-भांति जानते हैं। इन आपदाओं में उत्तराखण्ड के
परिप्रेक्ष्य में वनों में आग भी प्रमुख है। उत्तराखण्ड राज्य, जिसकी 67 प्रतिशत भूमि, वन भूमि है। इसमें जंगल से जुड़े बिना जीवन संभव नहीं है।
उत्तराखण्ड गाँवों से बना एक राज्य है जहाँ आजीविका का मुख्य साधन कृषि और पशुपालन है। कई विशेष अवसरों पर घास, ईंधन और भोजन के रूप में, कंद की जड़ें और फल आदि जंगल से प्राप्त होते हैं। पर्यटन के मौसम में जंगलों में पाए जाने वाले बुरांश के फूल कई लोगों की रोजी-रोटी का जरिया बन गए हैं। इसलिए, जंगल की आग गाँव के लोगों के साथ-साथ राज्य सरकार को भी आर्थिक रूप से प्रभावित करती है क्योंकि जंगल सरकार के लिए आय का एक बड़ा स्रोत है।
वनाग्नि (वनों की आग के कारण) | Reason Behind Forest Fire in Uttarakhand
वनाग्नि के कारण केवल वनों को ही नुकसान नहीं पहुँचता है बल्कि उपजाऊ भूमि के कटाव में भी तेजी आती है। वनाग्नि का बढ़ता संकट वन्यजीवों के अस्तित्व के लिये समस्या उत्पन्न करता है।
वैसे तो वनों में आग लगने के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन कुछ ऐसे वास्तविक कारण हैं, जिनकी वजह से विशेषकर गर्मियों के मौसम में आग लगने का खतरा हमेशा बना रहता है।
- जंगल में काम कर रहे मजदूरों, वहाँ से गुजरने वाले लोगों या चरवाहों द्वारा गलती से जलती हुई किसी वस्तु/सामग्री आदि को वहाँ छोड़ देना।
- आस-पास के गाँव के लोगों द्वारा दुर्भावना से आग लगाना।
- मवेशियों के लिये चारा उपलब्ध कराने हेतु आग लगाना।
- बिजली के तारों का वनों से होकर गुज़रना।
परंतु, यदि हम वर्तमान परिपेक्ष में बात करें तो वनों में अतिशय मानवीय अतिक्रमण/हस्तक्षेप के कारण इस प्रकार की घटनाओं में लगातार वृद्धि देखने को मिली है।
वनों की आग से जैव-विविधता को हानि, प्रदूषण की समस्या में वृद्धि, मृदा की उर्वरता में कमी, आर्थिक क्षति आदि नकारात्मक प्रभाव हमें देखने को मिलते है।
वनों में आग के कारण, केवल वनों को ही नुकसान नहीं पहुँचता है बल्कि उपजाऊ मिट्टी के कटाव में भी तेज़ी आती है, इतना ही नहीं जल संभरण के कार्य में भी बाधा उत्पन्न होती है। वनाग्नि का बढ़ता संकट वन्यजीवों के अस्तित्व के लिये समस्या उत्पन्न करता है। कई बार ग्रामीण जंगल में जमीन पर गिरी पत्तियों या सूखी घास में आग लगा देते हैं, जिससे उसकी जगह नई घास उग सके। लेकिन आग इस कदर फैल जाती है कि वन संपदा को खासा नुकसान होता है। वहीं, दूसरा कारण चीड़ की पत्तियों में आग का भड़कना भी है। चीड़ की पत्तियाँ (पिरुल) और छाल से निकलने वाला रसायन रेजिन, बेहद ज्वलनशील होता है। जरा सी चिंगारी लगते ही आग भड़क जाती है और विकराल रूप ले लेती है।
उत्तराखण्ड में करीब 16 से 17 फीसदी वन, चीड़ के हैं। इन्हें ही उत्तराखण्ड में वनों की आग के लिए मुख्यत: जिम्मेदार माना जाता है। उत्तराखण्ड में मिट्टी की नमी में कमी, वनों में आग लगने का एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
लगातार दो मानसून सीज़न (वर्ष 2019 और 2020) में क्रमश: 18% और 20% तक औसत से कम वर्षा हुई
है। वहीं, वर्ष 2021 में भी कम बारिश होना, वनों की आग का एक प्रमुख कारण रहा। इस वर्ष भी बारिश कम होने से जंगलों में आग के मामले दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही रहते है।
उत्तराखण्ड के वनों में आग के आंकड़े व आर्थिक नुकसान | Forest Fire in Uttarakhand in Hindi
भारतीय वन सर्वेक्षण की ओर से जारी की गई इंडिया स्टेट आफ फॉरेस्ट रिपोर्ट -2021 के मुताबिक वर्ष 2019- 20 की तुलना में वर्ष 2020-21 में उत्तराखण्ड समेत देश के तमाम राज्यों में वनाग्नि की घटनाओं में औसतन तीन गुना की अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। उत्तराखण्ड के आँकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2019-20 में जहाँ 759 वनाग्नि की घटनाएं हुई। वर्ष 2020-21 में यह आँकड़ा बढ़कर 21487 पर पहुँच गया। ऐसे में वनाग्नि की घटनाओं में 28.3 गुना इजाफा हो गया। प्राप्त सरकारी आंकड़ों के अनुसार 9 नवंबर 2,000 में राज्य गठन के बाद से अब तक हर वर्ष आग लगने की घटनाओं से प्रदेश के 49,000 हेक्टेयर में
मौजूद जंगल जलकर खाक हो चुके है जो की 85,000 फुटबॉल ग्राउंड्स के बराबर है।
साथ ही वर्ष 2021 में वनों में आग के कारण हुए आर्थिक नुकसान पर ध्यान दे तो वन विभाग के मुताबिक, केवल चार माह में ही (जनवरी-अप्रैल) लगभग 62 लाख से अधिक मूल्य की वन संपदा का नुकसान हुआ था। जिसमें कई व्यक्तियों व वन्य जीवों ने अपनी जान गवाई। वहीं मौसम विभाग की ओर से जारी बारिश के आंकड़ों पर अगर नजर डालें तो वर्ष 2021 में जनवरी से मार्च तक उत्तराखण्ड में केवल 10.9 मिमी बारिश दर्ज की गई, जबकि सामान्य तौर पर इस अवधि में 54.9 मिमी बारिश होती है। यानी सामान्य से 80 प्रतिशत कम बारिश हुई।
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ फारेस्ट मैनेजमेंट (भोपाल)द्वारा वर्ष 2018 में जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड की पर्यावरणीय सेवाओं (Ecosystem Services) का मूल्यांकन 95,112 करोड़ रुपए वार्षिक है। इस आधार पर या इस रिपोर्ट को आधार बनाकर, राज्य सरकार केंद्र से ग्रीन बोनस की मांग करती है।
वनों का महत्त्व | IMPORTANCE OF FOREST
- वन जलवायु परिवर्तन को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- एक पूर्ण विकसित वन किसी भी अन्य स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र की तुलना में अधिक कार्बन का
संचय करता है। - भारत में वनों के निकट बसे लगभग 1.70 लाख गाँवों (वर्ष 2011 की जनगणना) में कई करोड़ लोगों की आजीविका ईंधन, बाँस, चारा आदि के लिये इन पर निर्भर है।
वनाग्नि की घटनाओं को रोकने हेतु समाधान
इस सम्बन्ध में प्रभावी कार्यवाही हेतु वन अधिकारियों और स्थानीय लोगों का आपसी तालमेल अत्यंत जरुरी है।
वनाग्नि को फैलने से रोक पाना संभव नहीं है। अतः इसके लिये अग्नि रेखाएँ (Fire lines) निर्धारित
किये जाने की आवश्यकता हैं। वस्तुत: अग्नि ज़मीन पर खिंची वैसी रेखाएँ होती हैं जो कि वनस्पतियों तथा घास के मध्य विभाजन करते हुए वनाग्नि को फैलने से रोकती हैं। चूँकि ग्रीष्म ऋतु के आरंभ में वनों में सूखी पत्तियों की भरमार होती हैं अत: इस समय वनों की किसी भी भावी दुर्घटना से सुरक्षा किये जाने की अत्यधिक आवश्यकता होती है। साथ ही स्थानीय लोगों को जागरूक करने व जानबूझकर आग लगाने से रोकने की आवश्यकता है।
लोगों को भ्रम से निकालने की आवश्यकता है कि आग लगाने से ज्यादा अच्छा चारा या घास होती है और आग बुझाने हेतु मात्र वर्षा का इंतजार करना भी अधिकारियों का अनुचित रवैया है।
एकीकृत वन संरक्षण योजना (Integrated Forest Protection Scheme-IFPS) के अंतर्गत प्रत्येक राज्य को वनाग्नि प्रबंधन योजना का प्रारूप तैयार करना होता है। इस प्रारूप के अंतर्गत वनाग्नि को नियंत्रित एवं प्रबंधित करने संबंधी सभी घटकों को शामिल करना अनिवार्य है।
इन घटकों के अंतर्गत फायर लाइन्स का निर्माण किया जाने का भी प्रावधान है। इन फायर लाइन्स में वैसी वनस्पतियों (सूखी पत्तियों एवं घास युक्त वनस्पति) को उगाया जाएगा जो आग को फैलने से रोकने में कारगर साबित हों।
एन.जी.टी. का आरोप :
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (National Green Tribunal-NGT) द्वारा भी पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय पर देश के सभी राज्यों में वनाग्नि के प्रबंधन के विषय में कोई ठोस योजना बनाने में कोताही बरतने का आरोप लगाया जाता रहा है।
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