कविता :-” गांव छोड़ शहर की ओर ” : पलायन का दर्द
” गांव छोड़ शहर की ओर ” : पलायन का दर्द बताती कविता
छांव की तलाश थी और दोपहर को चुन बैठे,
कुछ लोग गांवो को छोड़ शहर को चुन बैठे।
अब कैद हैं घर की चार दिवारियों के भीतर,
हवा छोड़ कर आये थे अब जहर को चुन बैठे।
अब बातें होती तो हैं उस गांव की खुशबू की,
महकती माटी को छोड़ पत्थर को चुन बैठे।
अब याद करते हैं लकड़ी के बने मकानों को,
गांव के पटालों को छोड़ संगमरमर को चुन बैठे।
अब शामिल होते हैं शहरों की भागदौड़ में रोज,
ऊंचे ख्वाबों में जमीं छोड़ अम्बर को चुन बैठे।
ऐकड़ों की हैसियत रखते थे जो अपने गावों में,
छोड़ रईसी को मुट्ठी भर की गुजर बसर चुन बैठे।
अब ना इधर की ठौर ना उधर का ठिकाना है,
समुंदर के राही किनारे छोड़ लहर को चुन बैठे।
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