कही सहयोग की भावना खत्म तो नहीं हो रहीं ??


जब सहायता या सहयोग की बात आती है तो अधिकतर लोगों के दिमाग़ में केवल एक ही बात ध्यान आती है कि सहायता अर्थात आर्थिक साहयता परंतु सहायता केवल आर्थिक न होकर अनेक तरह से हो सकती हैं।आगे बढ़ने से पहले स्वामी विवेकानंद जी की कही गयी एक बात को व्यक्त करना चाहेंगे कि ” अगर हमारा इंसान के रूप में जन्म हुआ हैं तो हमारा लक्ष्य केवल मोक्ष प्राप्ति और जनसेवा ही हो सकता हैं अन्यथा कुछ नही ।” हम यहाँ अभी केवल सहायता के पहलू पर चर्चा करेंगे।


पिछले कुछ दशकों से देखा गया है कि इंसान जितना आधुनिक होता जा रहा हैं , वो उतना ही अकेला भी होता जा रहा हैं। जैसे जैसे इंसान अपनी जड़ों से कट कर बाहर निकल रहा हैं और आधुनिकता की तलाश में अपने जीवन को एक अनिर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में झोंक रहा हैं। उससे कहीं न कहीं कुछ सामाजिक व्यवस्था में भी बदलाव आया हैं। पहले इंसान एक दूसरे के सहयोग करने को अपने लिए एक उत्तम अवसर समझता था और प्रकृति में सभी प्राणियों के साथ समन्वय के साथ रहना पसंद करता था।
वर्तमान में इंसान में सहयोग के गुण में कुछ कमी जरूर आयी हैं। पहले इंसान निस्वार्थ भाव से सहायता करता था परंतु अब सहायता भी अवसरवाद पर निर्भर करने लगी हैं।

पहले हमारी सामाजिक व्यवस्था में हर इंसान ही नही बल्कि सभी प्राणी को इतना विस्वास अवश्य रहता था कि जीवन में कभी किसी को भूखा नही सोना पड़ेगा । परंतु आज अनेक बच्चें , बुड्ढे भोजन के लिए भी तरसते नज़र आते हैं ।  जो भी किसी ने प्राप्त किया हैं वो इसी प्रकृति से प्राप्त किया हैं और यही छोड़ कर भी जाना पड़ेगा। अतः अगर ये एक चक्र हैं तो ये हर व्यक्ति की जिम्मेदारी बनती हैं कि जो व्यक्ति जिस क्षेत्र में भी सम्पन्न है वो उस क्षेत्र में अपना कुछ समय सहायता के लिए निकाले। अगर कोई शैक्षणिक तौर पर सम्पन्न ,कोई आर्थिक तौर पर सम्पन्न ,कोई संसाधन सम्पन्न हैं , जैसे भी हो वो अपना कुछ समय निकाल कर इस संपन्नता का प्रयोग दूसरों की सहायता के लिए अवश्य करें।

हमारे शास्त्रों में भी इस विषय पर अनेक शिक्षाएं दी गयी हैं और यहाँ तक समझाया गया हैं कि सहायता कभी व्यर्थ नही जाती हैं। जीवन मे मानसिक सुख को सबसे ऊपर स्थान दिया गया हैं और सहायता को मानसिक सुख प्राप्ति का उत्तम आधार भी बताया गया हैं। वर्तमान की भागदौड़ भरी जिंदगी में इंसान जहाँ एक और खुद को संसाधन सम्पन्न करने में अपना पूरा जीवन व्यतीत कर दे रहा हैं वही दिनोंदिन मानसिक सुख की कमी से जूझता ही दिखाई दे रहा हैं। आज समाज मे वृद्ध आश्रमों की बढ़ती तादाद , भूख के कारण बढ़ती मौते आदि ये तो सिद्ध करते ही है कि हम अपने सहयोग के गुण को नजरअंदाज कर रहे हैं। 


मुम्बई जैसे बड़े और संपन्न महानगर में किसी औरत का अपने घर में मौत के बाद पार्थिव शरीर का कंकाल में परिवर्तित हो जाना और लंबे समय बाद उसके बेटे को इसकी जानकारी होना ये सिद्ध करता है कि हमारे अपने सगे रिस्तों में भी सहयोग की भावना समाप्त होती जा रही हैं।  जो कि प्रकृति के नियमों का उल्लंघन ही प्रतीत होता हैं । ऐसे में अगर हम भविष्य में भी नहीं सचेत होते हैं ; तो ये एक सामाजिक विकृति बनकर सामाजिक व्यवस्था को कमज़ोर करेगी । अतः उचित यही होगा कि अगर हो सके तो दिन में कुछ पल या हफ्ते में एक दिन , या महीने में कुछ दिन जैसे भी संभव हो सहयोग या सहायता के लिए भी निकाले ।