Karm Yoga- Swami Vivekananda Book Summary in Hindi | कर्मयोग – स्वामी विवेकानंद
कर्मयोग में कर्म का अर्थ केवल कार्य हैं। सत्य का ज्ञान मनुष्य जाति का ध्येय है, इसी लक्ष्य को प्राच्य दर्शन हमारे सामने रखते हैं। मनुष्य का ध्येय ज्ञान, सुख नहीं।
संसार के बड़े-बड़े महापुरुषों के चरित्रों का अध्ययन करने से पता चलता है कि दुख ने सुख से अधिक शिक्षा दी; धन से अधिक निर्धनता ने उन्हें महत्ता प्रदान की; प्रशंसा से नहीं अपितु निंदा के प्रहार सहकर उनकी अन्तःज्योति का जागरण हुआ।
संसार को जितना ज्ञान मिला है, इसी मस्तिष्क से। तुम्हारा मस्तिक ही विश्व का असीम जान भंडार है।
प्रत्येक मानसिक व शारीरिक प्रहार जो आत्मा से अपनी उचित शक्ति और ज्ञान को जानने के लिए, उस पर किया जाता है , कर्म है।
मनुष्य को छोटे-छोटे काम करके देखिए, वे ही वास्तव में किसी महापुरुष का सच्चा चरित्र आपको बता सकते हैं। समय पड़ने पर छोटे से छोटे मनुष्य में भी बड़प्पन आ सकता है; सचमुच बड़ा तो वही है जिसका चरित्र सदा बड़ा है।
चरित्र निर्माण में कर्म ही सबसे बड़ी शक्ति है।
शक्ति के मूल में चरित्र होता है और चरित्र के मूल में कर्म। जैसा कर्म होता है वैसी अंतःशक्ति होती है।
हमारी योग्यता हमारी स्मरण शक्ति, हमारे कर्म के अनुकूल होती है। हम जो कुछ भी होना चाहे, वह हो सकने की शक्ति हममे हैं। यदि हमारा वर्तमान रूप हमारे पूर्व कर्मों का परिणाम है, तो निश्चय ही अपने आज के कर्मों द्वारा हम अपना भावी रूप भी बना सकते हैं।
मनुष्य चार पैसे के पीछे अंधा बनाओ घूमता है और उन क्षुद्र चार पैसों के लिए अपने भाई मनुष्य को धोखा देने में तनिक भी आगा पीछा नहीं करता परंतु वे धैर्य धारण करें, तो वह ऐसा चरित्र बना सकता हैं की इच्छा करने पर करोड़ों को अपने पास बुला सके।
आदर्श मनुष्य को है जो शांति और निर्जनता में रहता हुआ भी अविराम गति से कर्मण्य रहता है तथा जो घोर कर्मण्यता का केंद्र होते हुए भी वन की-सी शांति और निर्जनता पाता है।
आगे बढ़ने के लिए पहले अपने आप में, उसके बाद ईश्वर में विश्वास चाहिए। जिसे अपने ऊपर भरोसा नहीं उसे ईश्वर पर कभी भरोसा नहीं हो सकता।
कर्मयोगी वह है जो जानता है कि मनुष्य का उच्च आदर्श अहिंसा है, यह वास्तविक शक्ति का चिन्ह है । पाप का प्रतिकार अहिंसा के शिखर तक पहुंचने के मार्ग की एक सीढ़ी मात्र है। इस आदर्श तक पहुंचने के पहले मनुष्य का कर्तव्य है कि वह पाप का प्रतिकार करें, काम करे, युद्ध करें , अपनी पूर्ण शक्ति से प्रहार करें, जब उसमे प्रतिकार की पूर्ण शक्ति आ जाएगी, तभी अहिंसा उसका गुण होगा।
अमरूद के पेड़ की बबूल के गुणों से न परख की जानी चाहिए, न बबूल की अमरूद के गुणों से। अमरूद की परख अमरूद के गुणों से कीजिए; बबूल की परख के लिए उसके गुण अलग है, यही हम सब पर लागू होते हैं।
Karm Yoga- Swami Vivekananda Book Summary in Hindi
माता-पिता को ईश्वर का साक्षात प्रतिनिधि जानकर गृहस्थों को सदा उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए। यदि माता-पिता उससे प्रसन्न है तो ईश्वर भी उससे प्रसन्न है। वही सपूत है जो माता-पिता का कभी बुरा नहीं करता।
गृहस्थ का कर्तव्य है जीविकोपार्जन करें ! परंतु उसे ध्यान रखना होगा कि वह झूठ बोलकर, धोखा देकर अथवा दूसरों को ठग कर ऐसा ना करें और उसे यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उसका जीवन ईश्वर की उपासना के लिए है, उसका जीवन दीनदुखियों की सेवा के लिए हैं।
ज्ञानदान; वस्त्र, भोजन आदि दान से बढ़कर है। यह जीवनदान से भी श्रेष्ठ है क्योंकि मनुष्य के वास्तविक जीवन का अर्थ है, सद्ज्ञान। अज्ञान मृत्यु है, ज्ञान जीवन।
गीता का यह मुख्य भाव है; सतत कर्म करना किंतु कर्म के फल में इच्छा न रखना।
सांख्य के उस महाकाव्य का स्मरण रखो- ‘ समस्त प्रकृति का अस्तित्व आत्मा के लिए ही है। दूसरा उसका कोई अर्थ नहीं। वह इसलिए है कि आत्मा को अपना ज्ञान हो और ज्ञान द्वारा वह मुक्त हो। यदि हम यह बात याद रखें तो हम प्रकृति में कभी आसक्त न हो।
आसक्ति वहीं होती है जहाँ कृत कर्म के लिए हम बदले में कुछ चाहते हैं।
जिस प्रकार जल से कमल नहीं भींगता , उसी प्रकार निःस्वार्थ पुरुष कर्म-फल की प्रत्याशा नहीं करता।
अनासक्त और स्वार्थहीन मनुष्य किसी भी पापपूर्ण नगर में प्रवेश करें , परंतु पाप की छाया उसे छू न सकेगी।
हमें इस बात का सदैव स्मरण रखना चाहिए कि दूसरों के कर्तव्य का हम उन्हीं के दृष्टिकोण से विचार करें, अन्य जातियों के देशवासियों की प्रथाओं को हम अपने मानदण्ड से न नापे। ‘ मेरा आदर्श संसार का आदर्श नहीं’ सीखने के लिए यह एक बड़ी शिक्षा है । मुझे संसार के अनुकूल रहना है, ना कि संसार को मेरे अनुकूल।
मनुष्य की महत्ता उसके कर्तव्य में नहीं, अपितु कर्तव्य पालन में होती है।
जो कोई काम कर रहे हो तो उससे अधिक बात न सोचो उसे उपासना समझकर उस समय के लिए जान लड़ा दो।
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