पलायन-एक दंश | MIGRATION PROBLEM IN HINDI
MIGRATION
कहा जाता है कि देश के विकास की पहली सीढ़ी गाँव से होकर ही गुजरती है क्योंकि गाँव अगर विकास के पथ पर अग्रसर होंगे तो देश तरक्की के मार्ग में जरूर प्रसस्त होगा। परन्तु पलायन(Migration) के कारण यह विकास की बाते बस सुनाई जाती है, जबकि धरातल में गाँव के गाँव खाली हो चुके है। पूरे देश में गांव पलायन (Migration) के कारण वीरान हो चुके है।
आज का हमारा लेख इसी पलायन(Migration) के बारे में है। इस लेख के माध्यम से हम आपको पलायन-एक दंश (Migration) के बारे में गांवों की स्थिति से अवगत कराएंगे। और पलायन है क्या? इसके कारक आदि के बारे में विस्तार से आपको बताने का प्रयास किया है।
2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश की कुल जनसंख्या 122 करोड़ अनुमानित है जिसमें 68 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में निवास करती है और 32 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में निवास करती है। स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना 1951 में ग्रामीण एवं शहरी आबादी का अनुपात 83 प्रतिशत एवं 17 प्रतिशत था।
50 वर्ष बाद 2001 की जनगणना में ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 74 एवं 26 प्रतिशत हो गया। वर्तमान में यह स्थिति और विकट हो चुकी है। आंकड़ों के देखने पर स्पष्ट होता है कि भारतीय ग्रामीण लोगों का शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ रहा है। गांवों से शहरों की ओर पलायन का सिलसिला कोई नयी बात नहीं है। गांवों में कृषि भूमि में लगातार कमी आना, आबादी बढ़ने और प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-कस्बों की ओर रुख करना पड़ता है।
गांवों में बुनियादी सुविधाओं की कमी भी पलायन का एक दूसरा बड़ा कारण है। गांवों में रोजगार और शिक्षा के साथ-साथ बिजली, आवास, सड़क, संचार, स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों की तुलना में बेहद कम है। इन बुनियादी कमियों के साथ-साथ गांवों में भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के चलते शोषण और उत्पीड़न से तंग आकर भी बहुत से लोग शहरों का रुख कर लेते हैं।
प्रसिद्ध उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द जी ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास “गोदान” में लगभग 85 वर्ष पूर्व “गांव छोड़कर शहर जाने की समस्या” को उठाया था। गांव हमारे देश की रीढ़ हैं, जो कि देश की आधारशिला रखते हैं। यदि किसी इमारत को बनाने की बात करें तो सर्वप्रथम उसकी बुनियाद मजबूत बनायी जाती है।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि देश की बुनियाद कठोर करने के लिए भी ग्रामीण संरचना को प्राथमिकता देनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों को विकास की लहर से जोड़ना चाहिए। यहीं दूसरी ओर यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात करें तो पिछले कुछ दशकों से ग्रामीण क्षेत्रों से हो रहे प्रवास में अधिकता पायी गयी है। जो समय के साथ-साथ पूर्ण प्रवास अर्थात् पलायन में तब्दील हो रहा है। परिणामस्वरूप कई नकारात्मक तथ्य सामने आ रहे हैं, जिसमें गांव का लुप्त होना मुख्य पाया गया है।
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पलायन क्या है ? What is Migration?
एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर रहना और अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करना पलायन कहलाता है। लेकिन यह पलायन की प्रवृत्ति कई रूपों में देखी जा सकती है जैसे एक गांव से दूसरे गांव में, गांव से नगर, नगर से नगर और नगर से गांव। परन्तु भारत में “गांव से शहरों” की ओर पलायन की प्रवृत्ति कुछ ज्यादा है।
एक तरफ जहां शहरी चकाचौंध, भागम-भाग की जिन्दगी, उद्योगों, कार्यालयों तथा विभिन्न प्रतिष्ठानों में रोजगार के अवसर परिलक्षित होते हैं। शहरों में अच्छे परिवहन के साधन, शिक्षा केन्द्र, स्वास्थ्य सुविधाओं तथा अन्य सेवाओं ने भी गांव के युवकों, महिलाओं को आकर्षित किया है। वहीं गांव में पाई जाने वाली रोजगार की अनिश्चितता, प्राकृतिक आपदा, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव ने लोगों को पलायन के लिए प्रेरित किया है। MIGRATION
पलायन का मतलब है संभावनाओं की तलाश में अपने क्षेत्र से बाहर निकलना , पलायन की इस परिभाषा से हम सभी काफी हद तक संतुष्ट हैं पर एक शंका है कि क्या पलायन हर बार अपने उद्देश्यों के साथ सफल होता है? ज्यादातर लोग पलायन करते है रोजगार के लिए, पर बड़े बड़े सपने रखने वाले हजारों नौजवान समय से पहले पलायन कर जाते है अच्छी शिक्षा और उज्जवल भविष्य के लिए। MIGRATION
बीते कुछ सालों में गांव छोड़कर शहरों की ओर पलायन करने वाले लोगों की संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी देखी जा रही हैं। इससे कई प्रकार के असंतुलन भी उत्पन्न हो रहे हैं। शहरों पर आबादी का दबाव बुरी तरह बढ़ रहा है, वहीं गांवों में कामगारों की कमी का अनुभव किया जाने लगा है।
दरअसल, रोजगार और बेहतर अवसरों की तलाश ही इस पलायन के प्रमुख कारण थे और इसी के चलते एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी हैं, जिन्हें अस्थायी पलायन करने वालों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस अस्थायी पलायन के चलते अपना वास स्थल छोड़कर पलायित होने वालों का सही हिसाब रख पाना एक टेढ़ी खीर साबित होता है।
सरकारी आंकड़ों की बात करें तो साल 1991 से 2001 के बीच के दस सालों में सात करोड़ तीस लाख ग्रामीणों ने पलायन किया। इनमें से पांच करोड़ तीस लाख लोग एक गांव छोड़कर दूसरे गांवों में बसने के लिए चले गये और करीब दो करोड़ लोगों ने शहरों की ओर रुख किया। इनमें ज्यादा तादाद ऐसे ही लोगों की थी जिन्हें काम की तलाश थी। एक गांव से दूसरे गांव को पलायन करने वालों की संख्या कुल पलायन का 54.7 फीसदी है। सरकारी आंकड़े यह भी बताते है कि 1991 से 2001 के बीच 30 करोड़ 90 हजार लोगों ने अपना निवास स्थान छोड़ा। जो देश की कुल आबादी का 30 प्रतिशत है। MIGRATION
पिछले एक दशक में किसी प्रांत के भीतर और एक प्रांत से दूसरे प्रांत में पलायन करने वालों की संख्या नौ करोड़ 80 लाख बतलायी गई है। इसमें से 6 करोड़ 10 लाख लोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों में ही जगह बदली जबकि तीन करोड़ 60 लाख लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर चले गए। यह देखना दिलचस्प होगा कि 1991 से 2001 के दशक में किसी एक प्रांत को छोड़कर दूसरे प्रांत में जाने वालों और बाहर से आकर प्रांत में रहने आने वालों के आंकड़े क्या कहते है। लिहाजा इस मामले में महाराष्ट्र अव्वल नम्बर पर ठहरता है। महाराष्ट्र से बाहर जाने वालो की अपेक्षा महाराष्ट्र आने वालो की संख्या 20 लाख 30 हजार से अधिक है। इसके बाद दिल्ली (10 लाख 70 हजार) गुजरात (68 लाख) और हरियाणा (67 लाख) का नम्बर आता है।
उत्तर प्रदेश में जितने लोग बाहर से आये उससे 20 लाख 60 हजार लोग ज्यादा बाहर गये। इसी तरह बिहार से जाने वालों की तादाद बिहार आने वालों की तादाद से 10 लाख 70 हजार ज़्यादा है। जाहिर है इस तादाद में लोग पलायन कर रहे हों तो उनकी गिनती या हिसाब रख पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है।
हालत ये है कि भारत सरकार के जनणगणना से संबंधित आकड़े भी पलायन की ठीक-ठीक तस्वीर बयां नहीं कर पाते। वर्तमान समय में यह स्थिति अत्यंत गंभीर हो चुकी है। अगर जीविका के संकट के कारण कोई पलायन करता है या फिर मान लें कि अस्थायी पलायन ही कर रहा है तो इसका असर पलायन करने वाले परिवार के बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है। इन वजहों से ऐसे परिवार के बालिग सदस्य चुनाव के वक्त वोट डालने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर पाते। वो चाहें जन्मस्थान पर हों या फिर उस जगह पर जहां रोजगार के लिए जाना पड़ता है, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को जो सुविधाएं मिली हैं वह भी हासिल करने से ऐसे परिवार वंचित रहते हैं। MIGRATION
पलायन अस्थायी तर्ज पर हो या फिर जीविका की संकट की स्थिति में गहरी चोट दलितों और आदिवासियों पर पड़ती है जो गरीबों के बीच सबसे गरीब की श्रेणी में आते हैं और जिनके पास भौतिक या मानवीय संसाधन नाममात्र के होते हैं। यह बात खास तौर से आंध्र प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के सर्वाधिक पिछड़े और सिंचाई के लिए मुख्यत: वर्षा पर आधारित जिलों पर लागू होती है।
पूर्व राष्ट्रपति एवं मिसाइल मैन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे कि “शहरों को गांवों में ले जाकर ही ग्रामीण पलायन पर रोक लगाई जा सकती है।” उनके इस कथन के पीछे यह कटु सत्य छिपा है कि गांवों में शहरों की तुलना में 5 प्रतिशत आधारभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। रोजगार और शिक्षा जैसी आवश्यकताओं की कमी के अलावा गांवों में बिजली, स्वच्छता, आवास, चिकित्सा, सड़क, संचार जैसी अनेक सुविधाएं या तो होती ही नहीं और यदि होती हैं तो बहुत कम। स्कूलों, कॉलेजों तथा प्राथमिक चिकित्सालयों की हालत बहुत खस्ता होती है। गांवों में बिजली पहुंचाने के अनेक प्रयासों के बावजूद नियमित रूप से बिजली उपलब्ध नहीं रहती। MIGRATION
पलायन क्यों हो रहा है ?
जीविका के परंपरागत स्रोत पर संकट आने के कारण हो रहा है पलायन ? MIGRATION
अगर पलायन जीविका के परंपरागत स्रोत पर संकट आने के कारण हो रहा है तो इससे असंगठित क्षेत्र में उद्योगों के पनपने को बढ़ावा मिलता है और शहरों में बड़ी संख्या में झुग्गी बस्तियों का विस्तार होता है। छोटी और असंगठित क्षेत्र में पनपी फैक्ट्रियों के मालिक पलायन करके आये मजदूरों से खास लगाव रखते है। क्योंकि एक तो ऐसे मजदूर कम मेहनताने पर काम करने को तैयार रहते हैं दूसरे छोटी मोटी बातों को आधार बनाकर इनके काम से गैर हाजिर रहने की भी संभावना कम होती है। ऐसे मजदूर ठेकेदार के कहने में होते हैं और स्थानीय मजदूरों की तुलना में मोलभाव करने की इनकी ताकत भी कम होती है।
मजदूरों की यह कमजोरी और कम मेहनताना भले ही कुछ समय के लिए उद्योगों के फायदे में हो लेकिन आगे चलकर देश की बढ़ोतरी की कथा में ऐसे मजदूरों की भागीदारी नहीं हो पाती। क्योंकि उनके पास खरीदने की ताकत कम होती है और इसीलिए उपभोग की ताकत भी कम। जबकि बाजार बढ़ते हुए उपभोग से ही बढ़ता है। इसी कारण अकसर यह तर्क दिया जाता है कि गांवों से शहरों की तरफ पलायन तभी समृद्धि की राह खोज सकता है जब मजदूरों के लिए ज्यादा मेहनताना पाने का आकर्षण हो और दूसरी तरफ गांवों से खदेडऩे वाली गरीबी हो। सरकारी आंकड़े कुछ भी कहते रहें, कुछ विशेषज्ञ यह मानते हैं कि पलायन करने वालों की वास्तविक संख्या आधिकारीक संख्या से 10 गुना ज्यादा हो तो कोई ताज्जुब नहीं। MIGRATION
गांवों से पलायन के प्रमुख कारण | Main Reason of Migration from Village
- परम्परागत जाति व्यवस्था का शिकंजा :-
परम्परागत जाति व्यवस्था का शिकंजा इतना मजबूत है कि शासन और प्रशासन भी सामूहिक अन्याय का मुकाबला करने वालों के प्रति उदासीन बना रहता है। जैसा कि पिछले दिनों उत्तर भारत के कुछ राज्यों हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि में खाप पंचायतों के अन्यायपूर्ण क्रूर आदेशों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है जिसमें लोग दबे रहने की बजाय गांव से पलायन करना पसंद करते हैं।
- शहरों में औद्योगिक इकाइयों की स्थापना :-
औद्योगीकरण शहरीकरण की पहली सीढ़ी है। आजादी के बाद भारत ने देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के इरादे से छोटे-बड़े उद्योगों की स्थापना का अभियान चलाया। ये सभी उद्योग शहरों में लगाए गए जिसके कारण ग्रामीण लोगों का रोजगार की तलाश एवं आजीविका के लिए शहरों में पलायन करना आवश्यक हो गया।
- शहरी चकाचौंध :-
भारत में गांवों से शहर की ओर पलायन की प्रवृत्ति बेहद ज्यादा है। जहां गांव में विद्यमान गरीबी, बेरोजगारी, कम मजदूरी, जाति और परम्परा पर आधारित सामाजिक रुढ़ियां, अनुपयोगी होती भूमि, वर्षा का अभाव एवं प्राकृतिक प्रकोप इत्यादि कारणों ने न सिर्फ लोगों को बाहर भेजने की प्रेरणा दी वही शहरों ने अपनी चकाचौंध सुविधाएं, युवाओं के सपने, रोजगार के अवसर, आर्थिक विषमता, निश्चित और अनवरत अवसरों में आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस प्रकार पुरुष और महिलाओं के एक बड़े समूह ने गांव से शहर की ओर पलायन किया है। वर्ष 2001 से 2011 तक की शहरी जनसंख्या में 5.16 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
- शिक्षा और साक्षरता का अभाव :-
शिक्षा और साक्षरता का अभाव पाया जाना ग्रामीण जीवन का एक बहुत बड़ा नकारात्मक पहलू है। गांवों में न तो अच्छे स्कूल ही होते हैं और न ही वहां पर ग्रामीण बच्चों को आगे बढ़ने के अवसर मिल पाते हैं। इस कारण हर ग्रामीण माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान करने के लिए शहरी वातावरण की ओर पलायन करते हैं।
हालांकि सरकारी एवं निजी तौर पर आज ग्रामीण शिक्षा को बढ़ाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन जब रोजगार प्राप्ति एवं उच्च-स्तरीयता की बात आती है तो ग्रामीण परिवेश के बच्चे शहरी बच्चों की तुलना में पिछड़ जाते हैं। ग्रामीण बच्चे अपने माता-पिता के साथ गांव में रहने के कारण माता-पिता के परम्परागत कार्यों में हाथ बंटाने में लग जाते हैं जिससे उन्हें उच्च शिक्षा के अवसर सुलभ नहीं हो पाते हैं। इस कारण माता-पिता उन्हें शहर में ही दाखिला दिला कर शिक्षा देना चाहते हैं और फिर छात्र शहरी चकाचौंध से प्रभावित होकर शहर में ही रहने के लिए प्रयास करता है जो पलायन का एक प्रमुख कारण है।
- रोजगार और मौलिक सुविधाओं का अभाव :-
गांवों में कृषि भूमि का लगातार कम होते जाना, जनसंख्या बढ़ने, और प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-नगरों की तरफ जाना पड़ रहा है। गांवों में मौलिक आवश्कताओं की कमी भी पलायन का एक बड़ा कारण है। गांवों में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, आवास, सड़क, परिवहन जैसी अनेक सुविधाएं शहरों की तुलना में बेहद कम हैं। इन बुनियादी कमियों के साथ-साथ गांवों में भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के चलते शोषण और उत्पीड़न से तंग आकार भी बहुत से लोग शहरों का रुख कर लेते है।
आजादी के बाद पंचायती राज व्यवस्था में सामुदायिक विकास तथा योजनाबद्ध विकास की अन्य अनेक योजनाओं के माध्यम से गांवों की हालत बेहतर बनाने और गांव वालों के लिए रोजगार के अवसर जुटाने पर ध्यान केन्द्रित किया जाता रहा है। 73वें संविधान संशोधन के जरिए पंचायती राज संस्थाओं को अधिक मजबूत तथा अधिकार-सम्पन्न बनाया गया और ग्रामीण विकास में पंचायतों की भूमिका काफी बढ़ गई है। पंचायतों में महिलाओं व उपेक्षित वर्गों के लिए आरक्षण से गांवों के विकास की प्रक्रिया में सभी वर्गों की हिस्सेदारी होने लगी है। इस प्रकार से गांवों में शहरों जैसी बुनियादी जरूरतें उपलब्ध करवाकर पलायन की प्रवृत्ति को सुलभ साधनों से रोका जा सकता है।
प्रवास की स्थिति हमारे समाज में निरंतर चली आ रही है। व्यक्ति अपनी आजीविका, शिक्षा, रहन-सहन और पारिवारिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए प्रवास कर रहे हैं। भारतीय समाज की मुख्य विशेषता ‘संयुक्त परिवार’ है। जो कि परिवार, परम्परा और समाज में संतुलन बनाये रखती है। यहीं आंकड़ों को देखें तो प्रवास के कारण संयुक्त परिवारों में विघटन होता नजर आता है। आधुनिक समय में प्रवास तथा पलायन के कारण पुराने सामाजिक तत्वों का कोई मूल्य नहीं रह गया। आधुनिकीकरण, नगरीकरण और औद्योगीकरण ने सामाजिक मूल्यों को बदल दिया है। संयुक्त परिवार एकल परिवार में परिवर्तित होते जा रहे हैं। साथ ही प्रवास के चलते सामाजिक विघटन, पारिवारिक विघटन और धार्मिक विघटन जैसी समस्याओं का जन्म हो रहा है।
आज के समय में ग्रामीण क्षेत्रों से लघुकालिक प्रवास से ज्यादा दीर्घकालिक प्रवास हो रहा है। जिस कारण पारिवारिक विघटन और सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिल रहा है। कुछ गांव प्रवास के कारण समाप्त हो चुके हैं तो अनेक गांव तो समाप्ति के कगार पर भी हैं। जिनको बचाने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र भारतवर्ष का आधार हैं। अतः गांवों को प्राथमिकता देना अत्यन्त आवश्यक है।
शाही श्रम आयोग ने इस संबंध में लिखा है कि “प्रवास की प्रेरक शक्ति एक सिरे से आती है अर्थात् गांवों से औद्योगिक श्रमिक नागरिक जीवन के आकर्षण से शहरों में नहीं जाता और न उसके प्रवास का कारण महत्वाकांक्षा ही होती है। शहर स्वयं उसके लिए आकर्षण की वस्तु नहीं है और अपना गांव छोड़ने के समय उसके मन में जीवन की आवश्यकताओं की प्राप्ति के अतिरिक्त और कोई भावना नहीं रहती। बहुत ही कम औद्योगिक श्रमिक नगर में रहना चाहेंगे, यदि उन्हें गांवों में जीवन-यापन के लिए पर्याप्त अन्न और वस्त्र मिल जाए। वह नगर की ओर आकर्षित नहीं होते, अपितु अकेले जाते हैं।” जिससे स्पष्ट होता है कि जीवन-यापन हेतु ही ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवास हो रहा है और गांव खाली हो रहे हैं। जीवन-यापन के अन्तर्गत भोजन, वस्त्र, चिकित्सा, रोजगार, शिक्षा, आय के साधन, लघु/कुटीर उद्योग, सभी सुविधायें आती हैं।
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