Biography of Netaji Subhas Chandra Bose in Hindi | नेताजी सुभाष चंद्र बोस : जीवनी | पराक्रम दिवस
Netaji Subhas Chandra Bose
नेताजी सुभाष चंद्र बोस (Netaji Subhas Chandra Bose) एक महान राष्ट्रवादी नेता थे, जिनकी अनन्य देशभक्ति ने उन्हें भारतीय इतिहास के सबसे महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक बना दिया। उन्हें भारतीय सेना को ब्रिटिश भारतीय सेना से एक अलग इकाई के रूप में स्थापित करने का श्रेय भी दिया गया, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को एक नयी दिशा प्रदान करने का काम किया।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओड़िसा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। जानकीनाथ बोस ने अंग्रेज़ों के दमनचक्र के विरोध में ” रायबहादुर “ की उपाधि लौटा दी।
संपन्न बंगाली परिवार में जन्मे नेता जी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवनशॉ कॉलेजिएट कॉलेज में की। इसके बाद उनकी शिक्षा कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज में हुई। देशभक्ति की भावना का उदाहरण तो उनके शुरुआती जीवन में ही देखने को मिलता है। बचपन में उन्होंने अपने शिक्षक के भारत विरोधी बयान पर घोर आपत्ति जताई थी और तभी से सबको अंदाजा लग गया था कि वे गुलामी के आगे सर झुकाने वालों में से नहीं है।
सुभाष चंद बोस के मन में देशप्रेम, स्वाभिमान और साहस की भावना बचपन से ही बड़ी प्रबल थी। वे अंग्रेज शासन का विरोध करने के लिए अपने भारतीय सहपाठियों का भी मनोबल बढ़ाते थे। अपनी छोटी आयु में ही सुभाष ने यह जान लिया था कि जब तक सभी भारतवासी एकजुट होकर अंग्रेजों का विरोध नहीं करेंगे, तब तक हमारे देश को उनकी गुलामी से मुक्ति नहीं मिल सकेगी। जहां सुभाष के मन में अंग्रेजों के प्रति तीव्र घृणा थी, वहीं अपने देशवासियों के प्रति उनके मन में बड़ा प्रेम था।
सुभाष चंद्र बोस शुरू से ही स्वामी विवेकानंद जी से प्रेरित रहे और समाज के प्रति उनकी सोच मानवतावादी और सुधारवादी बनती गई। वह एक मेधावी छात्र थे जो हमेशा परीक्षा में अव्वल आते थे। 1919 में उन्होंने स्नातक किया और भारतीय प्रशासनिक सेवा (इंडियन सिविल सर्विसेज) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया। अंग्रेजी शासन के जमाने में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था लेकिन बोस ने सिविल सर्विस की परीक्षा न केवल पास की बल्कि चौथा स्थान भी प्राप्त किया।
उन्मुक्त विचारों के सुभाष और भारत माँ के इस लाल का अंग्रेजों की नौकरी में कहां मन लगने वाला था। भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। सिविल सर्विस छोड़ने के बाद वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए। उनके मन में पहले से ही एक मजबूत और निडर व्यक्तित्व था। वह राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक तरीके से भारत का उद्धार चाहते थे।
बोस को दिसंबर 1927 में कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव के बाद 1938 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। उनके नेतृत्व में एक जादुई प्रभाव था। उनकी आवाज पर पूरा देश जान न्यौछावर करने को तैयार हो जाता था। लेकिन नेताजी के क्रांतिकारी विचारों और आकर्षण के कारण उनके अपने ही वरिष्ठ नेता बोस की निंदा करने लगे। विचारों में मतभेद और बोस की लोकप्रियता पार्टी के कई नेताओं को नहीं भा रही थी। इसे भांपते हुए सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी अलग पार्टी बनाई।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजादी की लड़ाई में एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्ति दिलाने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” , ” दिल्ली चलो “ और ” जय हिंद “ जैसे उनके नारे हमेशा के लिए लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गए।
Netaji Subhas Chandra Bose in Hindi
आजाद हिन्द फौज | Aazad Hind Fauj | Netaji Subhas Chandra Bose
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए जापान के सहयोग से ‘ आजाद हिन्द फौज ‘ का गठन किया था। नेताजी सुभाष चंद बोस द्वारा दिया गया ‘ जय हिंद ‘ का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सन 1920 में आईसीएस की परीक्षा पास की थी। लेकिन उनके दिलो-दिमाग पर स्वामी विवेकानंद जी के आदर्शों का प्रभाव था। ऐसे में उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी को छोड़कर अपने हाथों में तिरंगा उठा लिया। उनके आंदोलन से अंग्रेज भी घबरा पड़े और उन्हें घर में ही नज़रबंद कर दिया। इसके बावजूद नेताजी को अंग्रेज नहीं रोक सके। नेता जी ने कई देशों में भारतीयों को एकजुट किया और आखिरकार आजाद हिंद फौज का गठन कर आजादी के आंदोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सुभाष चंद्र बोस एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने देश में ही नहीं बल्कि देश के बाहर भी आजादी की लड़ाई लड़ी। राष्ट्रीय आंदोलन में नेताजी का योगदान कलम चलाने से लेकर आजाद हिंद फौज का नेतृत्व कर अंग्रेजों से लोहा लेने तक का है। सुभाष चंद्र बोस ने अपने कॉलेज के शुरुआती दिनों में ही बंगाल में वह क्रांति की मशाल जलाई जिसने भारत में आजादी की लड़ाई को एक नई धार दी।
‘ किसी राष्ट्र के लिए स्वाधीनता सर्वोपरि है ‘, इस महान मूलमंत्र को शैशव और नवयुवाओं की नसों में प्रवाहित करने, तरुणों की सोई आत्मा को जगाकर देशव्यापी आंदोलन देने और युवा वर्ग की शौर्य शक्ति को जगा कर राष्ट्र के युवकों के लिए आजादी को आत्मप्रतिष्ठा का प्रश्न बना देने वाले नेताजी सुभाष चंद बोस ने स्वाधीनता महासंग्राम के महायज्ञ में प्रमुख पुरोहित की भूमिका निभाई।
सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ वह आवाज थे, जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नयी दिशा प्रदान की। आईसीएस की नौकरी छोड़कर लंदन से भारत लौटने के बाद नेताजी की मुलाकात देशबंधु चितरंजन दास जी से हुई। उन दिनों चितरंजन दास जी ने फॉरवर्ड नाम से एक अंग्रेजी अखबार शुरू किया था और अंग्रेजों के जुल्मों सितम के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी। सुभाष चंद्र बोस जी से मिलने के बाद चितरंजन दास ने उन्हें इस फॉरवर्ड अखबार का संपादक बनाया बना दिया। नेताजी ने उस अखबार में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ जोर-शोर से लिखकर, अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ माहौल तैयार किया। कलम से शुरू की गई इस मुहिम की वजह से नेताजी को साल 1921 में 6 महीने की जेल भी हुई।
चितरंजन दास के साथ स्वराज्य पार्टी के लिए काम करते हुए और उसके बाद भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जेल आने-जाने का सिलसिला जारी रहा। नेताजी ने साल 1928 में कोलकाता की सड़कों पर सेना की वर्दी में 2000 भारतीय युवकों के साथ परेड कर ब्रिटिश खेमे को हिला कर रख दिया था। 1938 में हुए हरिपुरा अधिवेशन में नेताजी कांग्रेस के प्रमुख बनाए गए। नेता जी ने कांग्रेस को आजादी की तारीख तय करने के लिए कहा, साथ ही तय तारीख तक आजादी नहीं मिलने पर सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जोरदार आंदोलन छेड़ना चाहते थे। लेकिन महात्मा गांधी इसके लिए तैयार नहीं हुए। आखिरकार उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर 1940 में फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की और अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ नए सिरे से मोर्चा खोल दिया।
क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से प्रभावित होकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजादी की लड़ाई के लिए विदेशी मदद जुटाने की ठान ली थी। कोलकाता में पुलिस की नजरबंदी को चकमा देकर सुभाष बाबू काबुल के रास्ते जर्मनी पहुंचे। जर्मनी में उनकी मुलाकात हिटलर से हुई। जिसने ब्रिटिश हुकूमत को कमजोर करने के लिए नेताजी को हरसंभव मदद मुहैया कराने का वादा किया। नेताजी का यह विश्वास था कि भारत की आजादी तभी संभव है, जब ब्रिटेन पर विश्व युद्ध के समय ही निशाना साधा जाए। इसी कड़ी में उन्होंने इटली और जर्मनी में कैद भारतीय युद्धबंदियों को आजाद करवा कर एक मुक्त सेना भी बनाई।
साल 1943 में जब नेताजी जापान पहुंचे तब उन्हें कैप्टन मोहन सिंह द्वारा स्थापित आजाद हिंद फौज का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी गई। उनका चुनाव खुद रासबिहारी बोस ने ही किया। आजाद हिंद फौज ने साल फरवरी 1944 में ब्रिटिश सेना पर हमला कर दिया और कई भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों की हुकूमत से मुक्त करा दिया था। सितंबर 1944 में शहीदी दिवस के भाषण में नेता जी ने आजाद हिंद सैनिकों को कहा था।
तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा
यह बोस का ही असर था, जिसने अंग्रेजी फौज में मौजूद भारतीय सैनिकों को आजादी के लिए विद्रोह करने पर मजबूर कर दिया था। नेताजी ने आत्मविश्वास, भाव-प्रवणता, कल्पनाशीलता और नवजागरण के बल पर युवाओं में राष्ट्र के प्रति मुक्ति व इतिहास की रचना का मंगल शंखनाद किया।
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आजाद हिंद सरकार | Aazad Hind Sarkar | Netaji Subhas Chandra Bose
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में आजाद हिंद सरकार की स्थापना की। नेताजी ने आजाद हिंद सरकार की स्थापना के साथ यह साफ कर दिया कि भारत में अंग्रेजों का कोई अस्तित्व नहीं है और भारतवासी अपनी सरकार चलाने में पूरी तरह से सक्षम है। आजाद हिंद सरकार के बनने से आजादी की लड़ाई में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ।
21 अक्टूबर 1943 को देश से बाहर अविभाजित भारत की सरकार बनी थी, जिसका नाम था ” आजाद हिंद सरकार “।
अंग्रेजी हुकूमत को नकारते हुए यह अखंड भारत की सरकार थी। 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर में हुए समारोह में रास बिहारी बोस ने आजाद हिंद फौज की कमान सुभाष चंद्र बोस के हाथों सौंप दी। इसके बाद 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद सरकार की स्थापना हुई। आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सुभाष चंद्र बोस ने स्वतंत्र भारत की अस्थाई सरकार बनाई। जापान में 23 अक्टूबर 1943 को आजाद हिंद सरकार को मान्यता दी। जापान ने अंडमान और निकोबार द्वीप आजाद हिंद सरकार को दे दिए। सुभाष चंद्र बोस इन द्वीपों में गए और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप और निकोबार का स्वराज द्वीप रखा गया।
30 सितंबर 1943 को ही अंडमान निकोबार में पहली बार सुभाष चंद्र बोस ने तिरंगा फहराया था। यह तिरंगा आजाद हिंद सरकार का था। सुभाष चंद्र बोस भारत की पहली आजाद सरकार के प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री थे। आजाद हिंद सरकार को नौ देशों की सरकार ने अपनी मान्यता दी थी। जिसमें जर्मनी, जापान, फिलीपीन जैसे देश शामिल थे। आजाद हिंद सरकार ने कई देशों में अपने दूतावास भी खोले थे। नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिंद सरकार ने हर क्षेत्र से जुड़ी योजनाएं बनाई थी।
Netaji Subhas Chandra Bose in Hindi
आजाद हिंद सरकार की योजनाएं :
- इसका अपना बैंक, मुद्रा, डाक टिकट और रक्षातंत्र था।
- नेता जी ने देश के बाहर रहकर सीमित संसाधनों के साथ शक्तिशाली साम्राज्य के खिलाफ व्यापक तंत्र विकसित किया।
- नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने बैंक और स्वाधीन भारत के लिए अपनी मुद्रा के निर्माण के आदेश दिए।
- आजाद हिंद सरकार का अपना बैंक था, जिसका नाम था आजाद हिंद बैंक।
- आजाद हिंद बैंक ने दस रुपये के सिक्के से लेकर एक लाख रुपये का नोट जारी किया था।
- एक लाख रूपये के नोट पर सुभाष चंद्र बोस जी की तस्वीर छपी थी।
- सुभाष चंद्र बोस ने जापान और जर्मनी की मदद से आजाद हिंद सरकार के लिए नोट छपवाने का इंतजाम किया था।
- जर्मनी ने आजाद हिंद सरकार लिए के लिए कई डाक टिकट जारी किए थे, जिन्हें आजाद डाक टिकट कहा जाता है। यह टिकट आज भारतीय डाक में स्वतंत्रता संग्राम डाक टिकट में शामिल है।
आजाद हिंद सरकार सशक्त क्रांति का अभूतपूर्व उदाहरण था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंग्रेजी हुकूमत यानी ऐसी ऐसी सरकार के खिलाफ लोगों को एकजुट किया, जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था। दुनिया के एक बड़े हिस्से में जिसका शासन था। आजाद हिंद सरकार ने राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे को चुना। रविनाथ टैगोर रचित जन गण मन को राष्ट्रगान बनाया था। एक दूसरे से अभिवादन के लिए जय हिंद का प्रयोग करने की परंपरा भी शुरू की गई थी।
21 मार्च 1944 को ” दिल्ली चलो ” के नारे के साथ आजाद हिंद सरकार का हिंदुस्तान की धरती पर आगमन हुआ। आजाद हिंद सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेते हुए नेता जी ने ऐलान किया था, कि लाल किले पर एक दिन पूरे शान से तिरंगा लहराया जाएगा। आजाद हिंद सरकार ने देश के बाहर देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी थी और देश की आजादी में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस सरकार ने अंग्रेजों को बता दिया था कि, भारत के लोग अब अपनी जमीन पर बाहरी हुकूमत को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं करेंगे।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सबसे यादगार भाषणों में से एक बर्मा में दिया गया भाषण था। रंगून के जुबली हॉल में दिए गए भाषण में ना केवल जवानों में जोश भरने का काम किया बल्कि उन्हें आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए भी प्रेरित किया। नेताजी का यह भाषण सदैव के लिए इतिहास के पन्नों में अलंकित हो गया।
स्वतंत्रता बलिदान चाहती है, आपने आजादी के लिए बहुत त्याग किया है लेकिन अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आजादी को आज अपने शीश, फूल की तरह चढ़ा देने वाले पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काटकर स्वाधीनता की देवी को भेंट चढ़ा सके। तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा। खून की एक दो बूँद नहीं इतना कि खून का एक महासागर तैयार हो जाए और उसमें मैं इस ब्रिटिश साम्राज्य को डुबो दूँ। मनुष्य इस संसार में एक निश्चित, निहित उद्देश्य की प्राप्ति, किसी संदेश को प्रचारित करने के लिए जन्म लेता है। जिसकी जितनी शक्ति, आकांक्षा और क्षमता है वह उसी के अनुरूप अपना कर्मक्षेत्र निर्धारित करता है।
नेताजी के लिए स्वाधीनता ‘ जीवन-मरण ‘ का प्रश्न बन गया था। बस यही श्रद्धा, यही आत्मविश्वास जिसमें ध्वनित हो वही व्यक्ति वास्तविक सृजक है। नेताजी ने पूर्ण स्वाधीनता को राष्ट्र के युवाओं के सामने एक ‘मिशन’ के रूप में प्रस्तुत किया। नेताजी ने युवाओं से आह्वान किया कि जो इस मिशन में आस्था रखता है वह सच्चा भारतवासी है। बस, उनके इसी आह्वान पर ध्वजा उठाए आजादी के दीवानों की आजाद हिन्द फौज बन गई।
उन्होंने अपने भाषण में कहा था विचार व्यक्ति को कार्य करने के लिए धरातल प्रदान करता है। उन्नतिशील, शक्तिशाली जाति और पीढ़ी की उत्पत्ति के लिए हमें बेहतर विचार वाले पथ का अवलंबन करना होगा, क्योंकि जब विचार महान, साहसपूर्ण और राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत होंगे तभी हमारा संदेश अंतिम व्यक्ति तक पहुंचेगा।
आज युवा वर्ग में विचारों की कमी नहीं है। लेकिन इस विचार जगत में क्रांति के लिए एक ऐसे आदर्श को सामने रखना ही होगा, जो विद्युत की भांति हमारी शक्ति, आदर्श और कार्ययोजना को मूर्तरूप दे सकें। नेताजी ने युवाओं में स्वाधीनता का अर्थ केवल राष्ट्रीय बंधन से मुक्ति नहीं, बल्कि आर्थिक समानता, जाति, भेद, सामाजिक अविचार का निराकरण, सांप्रदायिक संकीर्णता त्यागने का विचार मंत्र भी दिया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जून 1943 में टोक्यो रेडियो से कहा था कि :
अंग्रेजों से साम्राज्य छोड़ देने की आशा करना व्यर्थ है। इसके लिए हर हिंदुस्तानी को संघर्ष करना होगा, वह चाहे देश में हो या देश से बाहर।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के इस ओजस्वी भाषण ने जहां एशिया में बसे विदेशों में बसे भारतीयों को आजादी की लड़ाई में योगदान देने के लिए प्रेरित किया।
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लाल किला ट्रायल | Red Fort Trial in Hindi
5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हॉल के सामने नेताजी ने आजाद हिंद फौज के सुप्रीम कमांडर के रूप में सेना को संबोधित करते हुए ” दिल्ली चलो ” का नारा दिया। नेताजी ने कहा कि हमारा दुश्मन बहुत क्रूर है, ऐसे में हमें मिलकर लड़ना होगा। नेताजी ने सदैव कहा कि हम जिए या मरे देश की आजादी महत्वपूर्ण है। उन्हें यकीन था कि उनकी यह मुहिम कभी ना कभी रंग लाएगी और हिंदुस्तान आजाद होगा।
हिंदुस्तान की तारीख में लाल किला ट्रायल का महत्वपूर्ण स्थान है। लाल किला ट्रायल के नाम से प्रसिद्ध आजाद हिंद फौज के ऐतिहासिक मुकदमे के दौरान उठे नारे “ लाल किले से आई आवाज सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज ” ने उस समय हिंदुस्तान की आजादी के हक के लिए लड़ रहे लाखों नौजवान को एक सूत्र में बांध दिया था। मुकदमे के दौरान पूरे देश में देशभक्ति का सैलाब उठ गया था।
15 नवंबर 1945 से जनवरी 1945 तक चला यह मुकदमा आजादी के संघर्ष में टर्निंग प्वाइंट और अंग्रेजी हुकूमत के ऊपर हिंदुस्तानी एकता को मजबूत करने वाला साबित हुआ।
“ लाल किले से आई आवाज सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज “ यह वही नारा था, जिसने 1945 में देश की आजादी के लिए लड़ रहे क्रांतिकारियों को एक सूत्र में बाधा। यह नारा उठा था, रेड फोर्ट ट्रायल के दौरान। दरअसल रेड फोर्ट ट्रायल आजाद हिंद फौज के 3 सैन्य अधिकारियों के खिलाफ चलाए गए मुकदमे से जुड़ा है। जिसकी सुनवाई नवंबर 1945 से जनवरी 1946 तक दिल्ली के लाल किले में हुई। और जिस वक्त यह मुकदमा चल रहा होता था, तब बाहर से सड़कों पर मौजूद देश के नौजवान यही नारा लगाते थे।
यह मुकदमा कई मोर्चों पर देशवासियों की एकता को मजबूत करने वाला साबित हुआ। आजाद हिंद फौज के दस मुकदमों में से यह पहला मुकदमा था जिसमें आजाद हिंद फौज के सैन्य अधिकारियों के खिलाफ अंग्रेजी हुकूमत ने बगावत करने और हत्या का मुकदमा चलाया था। यह मुकदमा देश में कौमी एकता की मिसाल बना, क्योंकि जिन अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाया गया वह तीनों ही अलग कौम से थे लेकिन तीनों ने कांग्रेस की बनाई गई डिफेंस टीम को ही अपनी पैरवी करने के लिए चुना था जबकि जनरल शाहनवाज को मुस्लिम लीग और कर्नल ढिल्लन को अकाली दल ने अपनी ओर से केस लड़ने की पेशकश की थी।
आजाद हिंद फौज के अधिकारियों का मुकदमा लड़ने के लिए डिफेंस टीम में सर तेज बहादुर सप्रू के नेतृत्व में देश में उस वक्त के कई नामी वकील आगे आए थे। इस दौरान देश में हर तरफ देशभक्ति का माहौल पैदा हो गया था। लोग देश के आजादी के खातिर मर-मिटने को तैयार थे। अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ धरने प्रदर्शन भी हुए। अलग-अलग जगहों पर हुई एकता सभाओं में कर्नल प्रेम कुमार सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन, मेजर जनरल शाहनवाज की लंबी उम्र की दुआएं की गई। लोगों की दुआएं काम कर गयी और मुकदमे का फैसला आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के हक में आया। ब्रिटिश साम्राज्य के अधिकारी हवा का रुख भाँप गए और उन्हें समझ में आ गया कि अगर अधिकारियों को सजा दी गई तो हिंदुस्तानी फौज में बगावत हो जाएगी।
रेड फोर्ट ट्रायल और इस दौरान उठे नारे ने पूरे देश में देशभक्ति की ऐसी लहर पैदा की जो भारत की आजादी की लड़ाई में काफी अहम साबित हुई। इस ट्रायल ने पूरी दुनिया में आजादी के लिए लड़ने वाले लोगों के अधिकारों को मजबूती दी। सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज के अलावा आजाद हिंद फौज के अनेक सिपाही जो अलग-अलग जगह पर गिरफ्तार हुए थे और जिन पर सैकड़ों मुकदमे चल रहे थे उन सभी को रिहा किया गया। इस मुकदमे के बारे में कई देशों की मीडिया में जमकर लिखा गया जिसके चलते रेड फोर्ट ट्रायल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो गया।
नेताजी के विचार विश्वव्यापी थे। वे समग्र मानव समाज को उदार बनाने के लिए प्रत्येक जाति को विकसित बनाना चाहते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि जो जाति उन्नति करना नहीं चाहती, विश्व रंगमंच पर विशिष्टता पाना नहीं चाहती, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं। नेताजी की आशा के अनुरूप इस जरा जीर्ण होते देश का यौवन लौटाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आज दृढ़ संकल्प लेना होगा।
बढ़ते जातिवाद, गिरते मूल्यों और टूटती परंपराओं, सभ्यताओं को सहेजना होगा। एक व्यापक राष्ट्रीय संगठन की स्थापना करनी होगी, अच्छे और बुरे की प्रचलित धारणा को बदलना होगा। नेताजी के इन शब्दों को हमें पुनः दोहराना और स्वीकारना होगा कि ‘स्मरण रखें, अपनी समवेत चेष्टा द्वारा हमें भारत में नए शक्ति-संपन्न राष्ट्र का निर्माण करना है। पाश्चात्य सभ्यता हमारे समाज में गहराई तक घुसकर धन-जन का संहार कर रही है। हमारा व्यवसाय-वाणिज्य, धर्म-कर्म, शिल्पकला नष्टप्राय हो रहे हैं इसलिए जीवन के सभी क्षेत्रों में पुनः मृत संजीवनी का संचार करना है। यह संजीवनी कौन लाएगा?’
ऐसे स्वाधीनता महासंग्राम के महायज्ञ में प्रमुख पुरोहित की भूमिका निभाने वाले नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को बैंकॉक से टोकियो जा रहे विमान दुर्घटना में हुई, लेकिन क्या वर्तमान में मोबाइल, चैटिंग सर्फिंग और एसएमएस में आत्ममुग्ध युवा नेताजी की प्रेरणा-पुकार सुनने को तैयार है? ‘किसी राष्ट्र के लिए स्वाधीनता सर्वोपरि है’ इस महान मूलमंत्र को जन-जन तक पहुंचाने वाले नेताजी की मृत्यु का रहस्य आज तक बरकरार है।
Netaji Subhas Chandra Bose in Hindi
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