कविता :- ईमानदारों की दुनिया में बेईमानों से वास्ता
ईमानदारों की दुनिया में बेईमानों से वास्ता
जिस पर चल रहा था, वो नहीं रास्ता था मेरा।
दोस्तों से नहीं, बस गद्दारों से वास्ता था मेरा।
जिनकी चमक चाँद तारों सी लगती थी मुझे,
उजालों से नहीं, अंधियारों से वास्ता था मेरा।
कई उड़ानों के ख्वाब देख रहा था एक पंछी,
अब जाना, बर्बादी के तूफानों से वास्ता था मेरा।
अब कैसे, आलीशान कोठियों पर नजर रखूं,
जहन को याद है, टूटे मकानों से वास्ता था मेरा।
सोचा था कि जिंदगी गुलदस्तों सी सजा लूंगा,
अब पता चला टूटे मर्तबानों से वास्ता था मेरा।
और खुद को ढूढ़ता रहा इंसानों की बस्ती में।
पर रोज अनगिनत हैवानों से वास्ता था मेरा।
और वफा मिली नहीं बस धोखे समेटता रहा,
ईमानदारों के शहर में बेईमानों से वास्ता था मेरा।
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