कविता : शख्सियत सस्ती छोड़ दो
शख्सियत सस्ती छोड़ दो
यार अब तो ये मौका परस्ती छोड़ दो,
शहर वालो गरीबों की बस्ती छोड़ दो।बड़े जहाज बेशक तुम्हारे लिए हैं बने,
हमारे लिए बस हमारी कश्ती छोड़ दो।फूलों को नहीं गंवारा भौरों का डसना,
अब बेवजह की ये जबरदस्ती छोड़ दो।तेज दौड़ता खून कहां किससे है अलग,
आओ गले लगो फिरका परस्ती छोड़ दो।जियो और इंसानियत को जिंदा रखो,
वर्ना जाओ ये बेकाम की हस्ती छोड़ दो।पाई पाई बचाने के लिए ईमान बिकता है,
जाओ यार ये शख्सियत सस्ती छोड़ दो।
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