शिकागो संबोधन | Swami Vivekanand Chicago Speech in Hindi
Swami Vivekanand Chicago Speech in Hindi
शिकागो में आज से लगभग 128 वर्ष पूर्व भारत के एक महान संत स्वामी विवेकानंद जी ने सात समंदर जाकर विश्व प्रेम और भाईचारे का ऐसा संदेश दिया कि दुनिया आज भी उन विचारों और संदेश को अपना आदर्श मानती है।
स्वामी विवेकानंद जी ने अपने इस भाषण में पूरी दुनिया का परिचय हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति से करवाया था। आज भी दुनिया उन विचारों और संदेशों को याद कर रही है और यह मान रही है कि स्वामी विवेकानंद जी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने तब थे।
आज के इस लेख के माध्यम से हम आपको बताएंगे स्वामी विवेकानंद जी के उस ऐतिहासिक शिकागो संबोधन के बारे में Swami Vivekanand Chicago Speech in Hindi और सामाजिक उद्धार के प्रति उनके नजरिये के बारे में। Chicago Speech UPSC in Hindi
विवेकानंद जी का ऐतिहासिक शिकागो भाषण | Swami Vivekanand Chicago Speech in Hindi
स्वामी विवेकानंद जी ने १८९३ में शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। यह भाषण और स्वामी विवेकानंद जी तब से एक दूसरे के पूरक हो गए। इस भाषण में स्वामी विवेकानंद जी ने जो महत्वपूर्ण संदेश दिया था वह था भारतीय वेदों में छुपा विश्व बंधुत्व एवं भाईचारे का संदेश।
स्वामी विवेकानंद जी ने जब 11 सितंबर १८९३ को शिकागो सम्मेलन में जब अपना भाषण शुरू किया तो पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। अपने भाषण में उन्होंने ना केवल हिंदू धर्म की कल्याणकारी बातों को सबके सामने रखा, बल्कि उन्होंने मानव धर्म और मानव कल्याण का संदेश भी दिया।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था :
अमेरिका के बहनों और भाइयों!!!
आपके इस स्नेह पूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा दिल अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति संप्रदाय के लाखों करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी है जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों से परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजराइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल -पोस रहा है। भाइयों मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसका मैंने बचपन से स्मरण किया है और दोहराया है और जो लोग जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है।
जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिलती है, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वह देखने में भले ही सीधे या टेढ़े -मेढ़े लगे, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं। वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक के सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है। जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुने, आखिर मुझ तक ही पहुंचते हैं। सम्प्रदायिकताए, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशजों की हठधर्मिता ने लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजे में जकड़ा हुआ है। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। ना जाने कितनी सभ्यताएं तबाह हुई और कितने देश मिटा दिए गए। अगर यह भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा। चाहे वह तलवार से हो या फिर कलम से।
स्वामी विवेकानंद (११ सितम्बर १८९३ शिकागो (अमेरिका) )
Swami Vivekanand Chicago Speech in Hindi
भारतीय पुनर्जागरण मजबूत परंपरा के वाहक | Indian renaissance bearer of strong tradition | Swami Vivekanand Chicago Speech in Hindi
स्वामी विवेकानंद जी ने भारत में सामाजिक धार्मिक और राजनीतिक पुनर्जागरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उठो, जागो और तब तक रुको नहीं जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए।
भारतीय पुनर्जागरण के मजबूत परंपरा के वाहक स्वामी विवेकानंद जी की यह पंक्तियां उनके सामाजिक चिंतन और विचार को बयां करती हैं। स्वामी विवेकानंद जी ने सामाजिक परिवर्तन को महज सतही तौर पर नहीं लिया बल्कि अपने तरीके से सामाजिक परिवर्तन की अपील की और उसे साकार करने के लिए जीवन भर लगे रहे।
सामाजिक सुधार की प्रक्रिया में विवेकानंद जी ने कहा :
मैं मनुष्य जाति से यह मान लेने का अनुरोध करता हूं कि कुछ नष्ट ना करो। विनाशक सुधारक लोग संसार का कुछ भी उपकार नहीं कर सकते। किसी वस्तु को भी तोड़ कर धूल में मत मिलाओ, बल्कि उसका गठन करो। यदि हो सके तो सहायता करो, नहीं तो चुपचाप हाथ उठाकर खड़े हो जाओ और देखो, मामला कहां तक जाता है।
स्वामी विवेकानंद जी के इन विचारों से जाहिर होता है कि स्वामी विवेकानंद जी विनाशक नहीं, रचनात्मक समाज सुधारक के पक्षधर थे, और यही बात उन्हें अपने दौर के समाज सुधारकों के दौर से महान बनाती है। स्वामी विवेकानंद जी को भारत की मूल शक्ति आध्यात्मिकता पर गहरा विश्वास था। उनकी आध्यात्मिकता संपूर्ण और सर्वव्यापी आत्मा का स्वरूप है। इसलिए उनका समाज सुधार ऊपरी नहीं है बल्कि वह आध्यात्मिकता की मजबूत भूमि पर आधारित है।
उनका मानना था कि सबसे पहले आध्यात्मिक सुधार करना जरूरी है। इसके बिना कोई भी दूसरा सुधार नहीं हो सकता। इसी को वे अमूल सुधार मानते थे। सामाजिक सुधार को वह बेहद महत्वपूर्ण मानते थे। लेकिन उनका मानना था कि समाज सुधार महज दिखावा ना हो और अधूरा भी ना हो। जब पूरी तरह से सुधार होगा तभी वह सार्थक होगा और लंबे समय तक उसका असर रहेगा।
भारतीय समाज की दुर्दशा और स्थिति के लिए वह लोगों की इच्छाशक्ति की कमी को जिम्मेदार मानते थे। उनका कहना था कि जब तक लोग खुद ही अपनी समस्या को हल करने के लिए आगे नहीं आएंगे, तब तक किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हो सकता। केवल चिल्लाने से कुछ नहीं हो सकता।
स्वामी विवेकानंद जी इस बात पर खास जोर देते थे कि समाज सुधारकों को समाज के प्रति गहरी सहानुभूति होनी चाहिए। तभी वह गरीबी और अज्ञान में डूबे करोड़ों लोगों की वेदना का अनुभव कर सकते हैं। साथ ही वह कैसे कहते थे कि जब देश के युवा अपने गरीब और दरिद्र देशवासियों के लिए अपने सुख और सुविधाओं का त्याग करेगा, तभी भारत दोबारा उठ सकेगा।
स्वामी विवेकानंद जी का मानना था कि सामाजिक परिवर्तन बाहर से नहीं बल्कि अंदर से होता है। उसे लाने के लिए समाज को बाहर से नहीं अंदर से मजबूत करना जरूरी है। भारतीय समाज में मौजूद विषमताओं का कारण वह वर्ग विभाजन को मानते थे।
स्वामी विवेकानंद जी ने कहा :
भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश के संपूर्ण विद्या-बुद्धि, राज-शासन और दंभ के बल से मुट्ठीभर लोगों के एकाधिकार में रखी गई है।
इस हालात को बदलने के लिए वे आम लोगों में शिक्षा के प्रसार को जरूरी मानते थे, जो नैतिक और बौद्धिक दोनों प्रकार की हो। इसके अलावा वह समाज के वंचित वर्ग को संगठित कर स्वयं के उद्धार के लिए तैयार करना भी जरूरी मानते थे।
स्वामी जी का संक्षिप्त जीवन परिचय
भारतीय जन जागरण के पुरोधा स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता के एक मशहूर वकील विश्वनाथ दत्त के घर में हुआ। माता भुवनेश्वरी देवी प्यार से उन्हें वीरेश्वर कहकर पुकारती थी। लेकिन नामकरण संस्कार के समय उनका नाम नरेंद्र नाथ दत्त रखा गया। बंगाली परिवार में जन्मे नरेंद्र में बचपन से ही आध्यात्मिक जिज्ञासा थी। कुशाग्र बुद्धि वाले नरेंद्र साथी बच्चों के साथ अध्यापकों से शरारत करने से भी नहीं चूकते थे।
परिवार में धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से नरेंद्र के मन में बचपन से ही धर्म और अध्यात्म के गहरे संस्कार पड़ गए। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद नरेंद्र को कोलकाता के मेट्रोपॉलिटन इंस्टिट्यूट में दाखिला करवाया गया। पढ़ाई के साथ ही खेलने, संगीत सीखने, घुड़सवारी करने में उनकी रुचि थी।
नरेंद्र की स्मरण शक्ति अद्भुत थी, वह एक बार पढ़कर ही पूरा पाठ याद कर लिया करते थे। उन्होंने पूरी संस्कृत व्याकरण, रामायण और महाभारत के अध्याय याद कर लिए थे। शुरू में नरेंद्र अंग्रेजी नहीं सीखना चाहते थे, उनका मानना था यह उन लोगों की भाषा है जिन्होंने उनकी मातृभूमि पर कब्ज़ा करा हुआ है। बाद में उन्होंने अंग्रेजी न सिर्फ सीखी बल्कि इस पर महारत भी हासिल कर ली।
बचपन से ही उनमें नेतृत्व का गुण था। वह सिर्फ कहने से ही किसी बात को नहीं मान लेते थे, बल्कि उसकी तार्किकता को भी परखने की कोशिश करते थे। सन्यासी बनने का विचार भी उनको बचपन से ही चलता रहा था। 14 वर्ष की उम्र में पिता के बीमार पड़ने के बाद विश्वनाथ दत्त ने नरेंद्र को मध्य प्रदेश के रायपुर में बुला लिया। रायपुर में ही नरेंद्र ने जीवन की विविधताओं को समझा। आसपास की पहाड़ियों और घने जंगलों पर विचरण से नरेंद्र की आंतरिक जिज्ञासा का विकास हुआ। रायपुर में 2 साल तक रहने के बाद वह वापस कोलकाता आ गए।
18 साल की उम्र में उन्होंने कोलकाता के एक प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज के दिनों में उनकी ज्ञान बिपाशा बढ़ती गई। संसार की सच्चाई और सत्य की खोज ऐसे प्रश्न उन्हें विद्रोही बनाने लगे। वह परंपराओं और रस्मों के प्रति भी सहज नहीं रहे। वे ईश्वर की मान्य धारणा के रहस्य को सुलझाने में बेचैन होने लगे।
इस दौरान 18८1 में उनकी भेंट स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी से हुई। रामकृष्ण परमहंस कोलकाता में दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी थे। उनकी उनसे भेंट के बाद नरेंद्र के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया। शुरुआत में उन्होंने परमहंस जी की बातों पर संशय किया, लेकिन उलझन और प्रतिवाद के बाद विवेकानंद जी ने परमहंस जी को अपना गुरु और मार्गदर्शक बना लिया।
१886 में रामकृष्ण परमहंस जी के निधन के बाद विवेकानंद जी के जीवन और कार्यों को नया मोड़ मिला। शरीर त्यागने से पहले परमहंस ने नरेंद्र को अपने सारे शिष्यों का प्रमुख घोषित कर दिया। इसके बाद सन्यासी नाम विवेकानंद ने धारण किया और उन्होंने बराहनगर मठ की स्थापना की और यहां अपने आध्यात्मिक प्रयोग करने लगे। भारतीय मठ परंपरा का पालन करते हुए विवेकानंद जी ने कई सालों तक भारतीय उपमहाद्वीप के अलग-अलग हिस्सों की यात्रा की।
सन्यासी के रूप में भगवा वस्त्र धारण कर डंड और कमंडल लेकर देशभर की पैदल यात्रा की। पूरा भारत उनका घर बन गया था और सारे भारतीय उनके भाई-बहन। १893 में अमेरिका के शिकागो कि विश्व धर्म संसद स्वामी जी के जीवन में नया मोड़ साबित हुई। राजस्थान में खेतड़ी के राजा अजीत सिंह के आर्थिक सहयोग से स्वामी विवेकानंद जी शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में शामिल हुए यहां उन्होंने भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया। 11 सितंबर १८९३ को धर्म संसद में विवेकानंद जी के दिए उत्कृष्ट भाषण से पूरी दुनिया में भारत का मान बढ़ गया।
करीब 4 साल तक उन्होंने अमेरिका के कई शहरों लंदन और पेरिस में व्याख्यान दिए। उन्होंने जर्मनी, रूस और पूर्वी यूरोप की यात्राएं भी की। हर जगह उन्होंने वेदांत के संदेश का प्रचार किया। हर जगह उन्होंने समर्पित शिष्यों का समूह बनाया। 4 साल के गहन उपदेशों के पश्चात स्वामी जी भारत लौटे।
स्वामी विवेकानंद जी ने 1 मई १८९७ को कोलकाता के बेलूर में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इसके जरिए रामकृष्ण परमहंस के विचारों के साथ वेदांत ज्ञान के अध्ययन को सुनिश्चित किया। विवेकानंद जी ने दीन-दुखियों की सेवा को सबसे बड़ा धर्म बताया। विवेकानंद जी ने अपने साथियों और शिष्यों से कहा कि अगर वे ईश्वर की सेवा करना चाहते हैं, तो गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा करें।
विवेकानंद जी का मानना था कि निर्धन और जरूरतमंदों के अंदर ही ईश्वर वास करते है। हालांकि अथक मेहनत की वजह से स्वामी विवेकानंद जी का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था। दिसंबर 18९८ में धर्म सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए फिर से वह अमेरिका और यूरोपीय देशों में गए। वहां से भारत लौटने के बाद 4 जुलाई 19०२ को बेलूर मठ में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।
39 साल की अल्पायु में ही उन्होंने पूरी दुनिया में आध्यात्मिकता की अलख जगाई। विवेकानंद भारत के आध्यात्मिक गगन के चमकते हुए सूरज हैं, जिनके विचार और कार्य आज भी मानव समाज को आलोकित कर रहे हैं।
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